हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के नामों की घोषणा की बाद भाजपा में बगावत के सुर तेज हो गए हैं। ऐसा ही कुछ हाल चम्बा जिला के सदर विधानसभा क्षेत्र में बना गया है। यहां प्रत्याशी बदले जाने के बाद सियासत ग्राणीण और शहरी के बीच बंट गई है। ऐसे में भाजपा को डैमेज कंट्रोल करना किसी चुनौती से कम नहीं है।
अधूरी हकीकतें
अगर जिंदगी को पहेली बनाया तो उलझते रहेंगे, अगर जिंदगी को सहेली बनाया तो सुलझते रहेंगे !!
गांव और शहर में बंटी सियासत, चम्बा में BJP को डैमेज कंट्रोल करना बना चुनौती
हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के नामों की घोषणा की बाद भाजपा में बगावत के सुर तेज हो गए हैं। ऐसा ही कुछ हाल चम्बा जिला के सदर विधानसभा क्षेत्र में बना गया है। यहां प्रत्याशी बदले जाने के बाद सियासत ग्राणीण और शहरी के बीच बंट गई है। ऐसे में भाजपा को डैमेज कंट्रोल करना किसी चुनौती से कम नहीं है।
बात अधूरी रह गई
ना गुफ्तगू हुई दरमियां हमारे बात अधूरी रह गई
पास होकर रुहों की ये मुलाकात अधूरी रह गई
यह सोचते गुजरी मेरी तो हर रात अधूरी रह गई
अकेले अकेले आंसुओं की बरसात पूरी बह गई
खिलें फूल चमन में कैसे बरसात अधूरी रह गई
तेरी मेरी बीच जो हर मुलाकात अधूरी रह गई
रविन्द्र कुमार अत्री 'अधीर'
मोहब्बत की टीस
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं
आज सोते वक्त तुझे याद करता हूँ
संग बिताए पलों से खुद को आबाद करता हूँ
लौटा आता हूँ सुबह फिर वहीं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं
रिश्ता कितना लंबा रहा यह जरूरी नहीं
जितना जिया संग उससे तो जिन्दगी अधूरी नहीं
लग जाता हूँ बुनने फिर कहानियाँ नईं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं
तेरी बातें याद कर छा जाता है तिलिस्म
एकदम ठंडे पानी से नहा जाता है मेरा जिस्म
यह तो ख्व़ाब है हकीकत तो नहीं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं
तेरा वो बात बात पर रूठना अच्छा था
कैसा भी था मगर अपना प्यार तो सच्चा था
मोहब्बत की थी तुमसे कोई छल नहीं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं
माना कि बदल गया हूँ थोड़ा दिल से
फासले तो मिटते ही हैं अक्सर मिल के
खुदगर्ज ही बन जाऊं ऐसा तो नहीं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं
आना है तो लौटा आ इंतजार में हूँ
याद है आपको आपका प्यार मैं हूँ
बसा लेते हैं आशियाना अपना दूर कहीं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं
रविन्द्र कुमार 'अधीर'
रंग
कभी तो मैं तेरा रंग था
तेरी खुशबू और उमंग था
बुने थे जो तूने संग मेरे
उन सपनों की पतंग था
तेरी धड़कन ओ चाहत था
तेरी सांसों की आहट था
दूरी जब होती थी दर्मियां
तेरे चेहरे की घबराहट था
एकदम से तूने बदला रंग
कसम खाई न जियेंगे संग
प्यार भरे दिल से खेली तू
देख कर अब हुआ हूँ दंग
कौन रोकेगा
मैं गुजर रहा हूँ तेरे शहर से
तुझे खुशबू तो आई होगी
याद कर वो प्यार के किस्से
आंखों में नमी तो आई होगी
वो ख्वाब भी याद आए होंगे
संग जीने के जो सजाए होंगे
चांदनी रात वो खुला आसमां
यादकर दो बूँद तो गिराई होंगी
हम यूं ही आएंगे इस शहर में
रात, सुबह शाम व दोपहर में
कौन मुझे अब रोकेगा यहाँ
कुछ इज्जत तो कमाई होगी
सच्चा प्यार
मोहब्बत में तेरा ख्याल भी अच्छा है
नादान बनो उम्रभर दिल तो बच्चा है
तुम करो या न करो मोहब्बत मुझसे
मैं करूंगा, मेरा प्यार पाक सच्चा है
तू पल-पल बदले है अदांज-ए-बफा
कभी रूह में उतरे फिर होती है खफा
तेरी नादानियां भी कहर ढाये मुझपर
लगे है तेरा प्यार अभी तक कच्चा है
मेरी बेचैनी
इश्क को इबादत मान बैठा हूँ
बस तुझे पाने की ठान बैठा हूँ
तेरा रूठ कर जाना अच्छा नहीं
लौट आएगी कभी जान बैठा हूँ
हमने क़समें खाईं साथ जीने की
रूठी तो धड़कन बंद है सीने की
इश्क में रूठने का सिलसिला है
मैं भी तो मनाने की ठान बैठा हूँ
मिलके जुदा हुए तो कैसे जिएंगे
लहू इश्क में कैसे हमराही पियेंगे
न खुद बेचैन हो न मुझे बेचैन कर
मुझे गले लगा ले बांहे तान बैठा हूँ
फिर से मोहब्बत
चर्चाएं तेरी मेरी मोहब्बत की होंगी
बातें तो तेरी मेरी उल्फत की होंगी
तू रूठकर कितने दिन गुजार लेगी
कब तक दिल के तूफान मार लेगी
तेरा वो जिक्र करना दोस्तों से मेरा
तेरी सांसों में बस नाम रहना मेरा
याद तुझे तो आएंगी वो चांदनी रातें
जब छत पर होती थीं दिल की बातें
चांद भी गवाही देगा ज़माने में मेरी
कैसी मोहब्बत थी भूलने वाली तेरी
मैं तो भूल नहीं सकता हूँ चाह कर
जी रहा हूँ मैं हर-पल आह भर कर
तेरा रूठकर जाना मुझे नहीं गंवारा
पाक और पवित्र था वो प्यार हमारा
कुछ तो हम दोनों ही रहे गल्फत में
कोई यूँ नहीं छोड़ जाता उल्फत में
आओ फिर हम दोनों एक हो जाएँ
वही पुरानी मोहब्बत में खो जाएँ
मोहब्बत का रंग
कभी तो मैं तेरा रंग था
तेरी खुशबू... उमंग था
बुने थे जो तूने संग मेरे
उन सपनों की पतंग था
तेरी धड़कन ओ चाहत था
तेरी सांसों की आहट था
दूरी जब होती थी दर्मियां
तेरे चेहरे की घबराहट था
एकदम से तूने बदला रंग
कसम खाई न जियें संग
प्यार भरे दिल से खेली तू
देख कर अब हुआ हूँ दंग
मीडिया : सवाल अस्तित्व का है
जिस तरह का दौर चल रहा है, उससे साफ है कि मीडिया अपनी भूमिका सही से नहीं निभा पा रहा। मीडिया जो सूचनाओं का माध्यम है आज पूरी तरह से बदल गया है। मीडिया अपने नाम के अर्थ को भी नहीं समझ पा रहा है कि आखिर इसका रोल क्या है?
लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाम परिवारवाद
सोशल मीडिया बनाम शोषण मीडिया
आप राष्ट्रवादी नहीं उपद्रवी हो
क्या राष्ट्रवाद के नाम पर अति उत्साहित होना सही है। आप राष्ट्रवादी हो सही है, मगर अति राष्ट्रवादी होना सही नहीं है। राष्ट्रवाद तो कभी नहीं कहता है कि आप किसी संपत्ति को नुकसान पहुंचाओ। तोड़-फोड़ करो या फिर आगजनी की घटना को अंजाम दो। अगर हम राष्ट्रवाद का चोला पहनकर इस तरह के कृत्य को अंजाम देते हैं तो हम राष्ट्रवादी नहीं हैं। राष्ट्रवादी अपने ही राष्ट्र की संपत्ति को, चाहे वो निजी हो या सार्वजनिक नुकसान नहीं पहुंचा सकता है। उसके अपने ही सिद्धांत यह सब करने की आज्ञा नहीं देते। अगर वो राष्ट्रवादी होने के साथ जिम्मेदार नागरिक है तो वह दूसरों को भी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने से रोकेगा। अगर नहीं रोकता है तो भी वह राष्ट्रवादी नहीं हो सकता। राष्ट्रवादी कभी नहीं चाहेगा कि उसके देश में मौजूद किसी भी व्यक्ति अथवा संपत्ति को नुकसान हो। एक सच्चा राष्ट्रवादी अपने देश की संपत्ति की सुरक्षा करेगा। वह अपने सामने किसी भी व्यक्ति को किसी भी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाने देगा। जम्मू के गुज्जर नगर में 14 फरवरी को पुलवामा आत्मघाती हमले के बाद 15 फरवरी को जो कुछ भी हुआ, वह राष्ट्रवाद के नाम पर मेरी नजर में एक धब्बा है। यह अति उत्साही राष्ट्रवादियों को घटिया कोशिश थी, जो वाहनों की तोड़-फोड़ की और वाहनों को आग के हवाले किया। आखिर नुकसान किसका हुआ, अपने ही राष्ट्र का। उसके बाद लगे कर्फ्यू में सभी व्यापारिक संस्थान बंद रहे। व्यापार नहीं हो पाया। नुकसान किसका हुआ, राष्ट्र का। शिक्षण संस्थान बंद रहे, नुकसान किसका हुआ, युवाओं का नहीं कि उनको शिक्षा हासिल करने में दिक्कत आई, बल्कि राष्ट्र का ही नुकसान हुआ। जिस भी तरह से आप सोच सकते हो उससे राष्ट्र का ही नुकसान हुआ। तो क्या एक राष्ट्रवादी होने के नाते आपको यह शोभा देता है कि आप राष्ट्र को नुकसान पहुंचाओ। नहीं, एक सभ्य नागरिक और राष्ट्रवादी को यह किसी भी कीमत पर शोभा नहीं देता है। अगर राष्ट्रवादी हो तो राष्ट्रवाद को सही मायनों में समझो कि आखिर राष्ट्रवाद है क्या? और राष्ट्रवादी हो तो आपका कर्तव्य क्या है?
पुलवामा में जो कुछ हुआ वो पूरे देश को झकझोरने वाली घटना है। यह एक अपूरणीय क्षति है। जो 40 जवान भारत ने खोए हैं, उनकी भरपाई नहीं हो सकती है। एक जवान को तैयार करने से लेकर उसके जीवन पर करोड़ों रूपये खर्च होते हैं। एक इंसान के तौर पर भी देखा जाए तो यह मानव जीवन अमूल्य है, इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती है। एक फौजी का शहीद होना भी देश के लिए भारी क्षति है और पुलवामा में तो 40 शहीद हुए हैं। यह देश के लिए भयावाह क्षति है। पुलवामा हादसे ने हमें करोड़ों का नुकसान पहुंचाया, ऊपर से आप लोग राष्ट्रवादी बनकर आ गए सड़कों पर। वाहनों को जला दिया। तोड़ दिया। फोड़ दिया। इससे आपने राष्ट्रवादी होने का सबूत नहीं दिया बल्कि आपने देश को और नुकसान पहुंचाने की कोशिश की। दुश्मन ने आपके रक्षकों को शहीद करके देश को नुकसान पहुंचाया और आप बदला लेने की मांग लेकर सड़कों पर उतरे और तोड़-फोड़ करके खुद अपने देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। फर्क क्या रहा दुश्मनों और आपके बीच में? आप राष्ट्रवाद के नाम पर उपद्रवी हो। दुश्मन हमेशा कुछ भी करता है तो वह सोच समझ कर करता है। सबसे पहले जिसे चोट पहुंचानी हो, उसकी नब्ज को टटोलता है। बर्दाश्त करने की क्षमता पहचानता है और उसके बाद ही रणनीति के तहत चोट देता है। वही पुलवामा में भी हुआ। हो सकता है कि जम्मू के सांइस कॉलेज के हॉस्टल में 12 फरवरी को हुई देशविरोधी नारेबाजी भी उसी रणनीति का हिस्सा हो। पहले वहां भड़काया और फिर पुलवामा में अटैक करके दोहरी चोट दे दी। इस घटना को इसलिए जोड़ रहा हूं क्योंकि 14 फरवरी को पुलवामा हमले के बाद कुछ कश्मीर से ऑपरेट होने वाले सोशल मीडिया अकाउंट से कमेंट्स आए थे कि यह जम्मू के सांइस काॅलेज की घटना का बदला है। दुश्मन ने अपनी रणनीति के तहत आपको पटखनी दी है। हमला भी आप पर हुआ और सड़कों पर भी आप उतरे। बाजार भी आपके बंद हुए और सब्जियां और अन्य जरूरी सामान के लिए भी आपको ही परेशान होना पड़ा। हर चीज तो आपको ही झेलनी पड़ी दुश्मन की रणनीति के तहत भी और आपकी अपनी कमजोरियों या यूं कहें कि आपकी अति राष्ट्रवादी सोच के कारण पैदा हुई समस्या के कारण भी।
मैं आपके राष्ट्रवादी होने का विरोध नहीं कर रहा हूँ। मैं भी आपकी तरह ही राष्ट्रवादी हूँ। मुझमें और आप में फर्क है थोड़ा। आप अति राष्ट्रवादी हो और मैं राष्ट्रवादी होने के साथ जिम्मेदार नागरिक भी हूँ। आप राष्ट्रवादी बनिए, लेकिन अति राष्ट्रवादी नहीं। आपका अति राष्ट्रवादी वाला रवैया आपको ही नुकसान पहुंचाएगा।
रविन्द्र कुमार अत्री
मुहब्बती तराने
न घुंघरू बजे और न साज
मुहब्बती तराने भी गुम हैं
बेवफा का दिया जो ताज
जाहिर तो कर देते एक बार
गैरों जैसा अपनों को तड़पना
ये तो नहीं है ना अपना प्यार
बिना किसी संगीत ओ साज
ऐसे निगाह क्यों फेर ली तुमने
क्या हुआ सनम को मेरी आज
ख्याल आपका छीन बैठा चैन
तुम तो अब कभी आते नहीं हो
छलक जाते हैं बस मेरे ये नैन
पर क्यों नहीं की तुमने वो दूर
कैसी वो चाहत है आपकी जान
जो करे बिछड़ने के लिये मजबूर
कुछ मैं आऊं कुछ तू आ करीब
मैं बन जाऊँ फिर से तेरा हबीब
तू भी बन जा रविन्द्र का नसीब
आज के अखबार
बाजार के आज कल बड़े समाचार मिल रहे हैं
गली मोहल्ले में कई नामी पत्रकार मिल रहे हैं
जनमानस से जुड़े समाचार मात्र एक काॅलम
विज्ञापनों से भरे सब बड़े अखबार मिल रहे हैं
अब पेड न्यूज खा रही है अखबार के पूरे पन्ने
समाज नहीं सिर्फ पैसों के सरोकार मिल रहे हैं
समाचारों पर हावी हो गया लाखों का विज्ञापन
प्रबंधन के आगे संपादक भी लाचार मिल रहे हैं
जगाता नहीं है कोई समाचार अब प्रशासन को
जन हित के आज समाचार शब्द चार मिल रहे हैं
पत्रकारिता का माहौल ही बदल गया है रविन्द्र
पत्रकार-संपादक भी पैसों के पैरोकार मिल रहे हैं
अब पत्रकार भी कमीशन पर कर रहे हैं काम
संपादक पेड न्यूज ही के तलबगार मिल रहे हैं
जन पीड़ा के लिए नहीं एक काॅलम का स्पेस
विज्ञापन आगे लाचार जन समाचार मिल रहे हैं।।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस का बहाना, चाटुकारों पर है निशाना
आज पत्रकारिता का क्षेत्र व्यापक हो गया है। पत्रकारिता एक ऐसी कला है जो जन-जन तक सूचनात्मक, शिक्षाप्रद एवं मनोरंजनात्मक संदेश पहुंचाने का काम करती है। समाचार पत्र एक ऐसी उत्तर पुस्तिका है, जिसके लाखों परीक्षक एवं अनगिनत समीक्षक हैं। तथ्यपरकता, यथार्थवादिता, संतुलन एवं वस्तुनिष्ठता पत्रकारिता के आधारभूत और मुख्य तत्व हैं। इनकी कमियां पत्रकारिता क्षेत्र में बहुत बड़ी है। पत्रकार चाहे प्रशिक्षित है या नहीं, यह सबको पता है कि पत्रकारिता तथ्यपरक होनी चाहिए। मगर चिंता का विषय है कि आज पत्रकारिता में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर, बढ़ा-चढ़ा कर या फिर घटाकर सनसनी फैलाने की प्रवृति बढ़ी है।
समाचारों में पक्षधरता एवं अंसतुलन भी देखने को मिल रहा है। इस प्रकार समाचारों में निहित स्वार्थ साफ झलकता है। आज समाचारों में विचार को मिश्रित किया जा रहा है। समाचारों का संपादकीयकरण हो रहा है। विचारों पर आधारित समाचारों की संख्या बढऩे लगी है और वास्तविक समाचार गौण होने लगे है। एक अजीब-सा पत्रकारिता का दौर चल रहा है।
मेरी लड़खड़ाती जुबान
अॉटो रिक्शा और जिंदगी का महत्व
शायद यही ज़िंदगी का इम्तिहान होता है।
हर एक शख्स किसी का गुलाम होता है।।
कोई ढूढ़ता है ज़िंदगी भर मंज़िलों को।
कोई पा के मंज़िल भी बेमुकाम होता है।।
फोटो।। साभार... इंटरनेट।। |
घर में मार खाकर भी भारत को डराता पाक
भारत ने पहले 2016 को सर्जिकल स्ट्राइक कर आतंक के खिलाफ एक ऑपरेशन किया था, लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली। परिणाम यह रहा कि आतंकी नासूर लगातार फैल रहा है। कश्मीर के कई हिस्सों को अपनी चपेट में ले रहा है। अब नासूर का एक ही उपचार है कि भारत दोबारा से कोई बड़ा ऑपरेशन करे, ताकि आतंक के नासूर का जख्म खत्म हो सके। सर्जिकल स्ट्राइक का जश्न मना कर हम लोगों में जोश तो पैदा कर सकते हैं, मगर बीमारी का जड़ से खत्म होना जरुरी है।
ठंडी घुप अंधेरी रात की फिल्म
हैप्पी टीचर डे
अगर न होते जीवन में टीचर
जाने कैसा होता अपना फ्यूचर
मां ने ऊंगली पकड़ चलना सिखाया
टीचर ने शिक्षा संसार का बोध कराया
मां बाप के बाद ॠण है टीचर का
रखता है आधार बच्चे के फ्यूचर का
टीचर बिना ना होता शब्दों का ज्ञान
संवारते हैं जीवन, बढ़ाते हैं सम्मान
सच कहूँ तो टीचर बिना हम कुछ नहीं
बिना ज्ञान के हमारा फ्यूचर कुछ नहीं
अज्ञानी को ज्ञानी बनाते हैं टीचर
गर न होते तो कैसा होता अपना फ्यूचर।।
-रविन्द्र कुमार अत्री @
अबकी राखी
साल भर उड़े आसमां में उम्मीदों के पाखी
तब जाके आई थी इस साल की यह राखी
सुबह उठा, फिर खूब चहुंओर राहें निहारी
आशा थी, उमंग थी आएगी बहना हमारी
भाई बहन के नाम था, साल का एक दिन
पल पल गुजारा मैंने पल पल को गिन गिन
मजबूरियों और हालात ने मुझे किया है दूर
पर बहना का प्यार तो कम नहीं हुआ हजूर
इंतजार करते खुली आंखों में सपने देखे
दीदी के आने तक सूने हाथ मैंने अपने देखे
काफी वक्त तो राह निहारते कोने में गुजारा
सूने हाथ संग यूँ ही गुजरा ये साल भी हमारा
खुद्दारी पर राजनीति भारी
खुद्दार पर एक लघुकथा भी साथ
एक रिक्शा चालक का बेटा रविवार के दिन घर फोन करता है "पिताजी आप ठीक तो हो ना? पैसो की कमी मत देखना,अब मैं बहुत पैसा कमाने लगा हूँ।" पर उसे क्या पता उसका बाप जब से वो छोटा था तभी से रिक्शा ही उसका कमाऊं पूत था और आज भी उसी से रोजी रोटी चलाता है। खुद्दार पिता मन ही मन सोचता है "पैसा वो भेजता है हाथ भी न लगाता हूँ,और क्यों लगाऊँ। बुढ़ापे में इतना खुद्दार जो हो गया हूँ। उसको पैसे कमाने लायक बनाना मेरा फर्ज था, मेरी जिम्मेदारी लेना उसकी कोई मजबूरी हो ये मैं नही समझता।" बस यही सोच कर रोज वह सर्दी हो, गर्मी हो, बारिश हो या तूफान यानी कुछ भी हो ये रिक्शा चलाना उसकी खुद्दारी है। अब भी जब हर रविवार के दिन बेटे का फोन आता है तो पिताजी उसे फोन पर ही आश्वस्त कर देते हैं कि तेरे दिए पैसों से मेरी जिंदगी आराम से चल रही है, लेकिन फिर भी रोजाना अपने काम में लग जाते हैं।एनआरसी मामला : करीब दो करोड़ बांग्लादेशी हैं भारत में
25 मार्च, 1971 के पहले से रह रहे लोग ही भारतीय
किन राज्यों में एनआरसी होता है लागू
बंटवारे के बाद भी जारी रहा आना-जाना
1979 में शुरू हुआ आंदोलन
असम समझौता
मनमोहन सिंह ने किया था अपडेशन का फैसला
एनआरसी के मुद्दे पर इतनी भड़की हुई क्यों हैं ममता बनर्जी
गांव और शहर में बंटी सियासत, चम्बा में BJP को डैमेज कंट्रोल करना बना चुनौती
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