गांव और शहर में बंटी सियासत, चम्बा में BJP को डैमेज कंट्रोल करना बना चुनौती


हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के नामों की घोषणा की बाद भाजपा में बगावत के सुर तेज हो गए हैं। ऐसा ही कुछ हाल चम्बा जिला के सदर विधानसभा क्षेत्र में बना गया है। यहां प्रत्याशी बदले जाने के बाद सियासत ग्राणीण और शहरी के बीच बंट गई है। ऐसे में भाजपा को डैमेज कंट्रोल करना किसी चुनौती से कम नहीं है।




भाजपा ने अपने प्रत्याशियों की घोषणा करते हुए वर्तमान सदर विधायक पवन नैय्यर का टिकट काट दिया था। उनके स्थान पर महिला नेत्री इंदिरा कपूर को पार्टी उम्मीदवार घोषित किया था। इसके बाद पवन नैय्यर के समर्थकों ने खूब विरोध जताया था। पार्टी हाईकमान को 24 घंटे में टिकट बदलने का अल्टीमेटम दिया था। जिसके बाद भाजपा हाईकमान ने 36 घंटे के भीतर टिकट बदल दिया। 


भाजपा ने इंदिरा कपूर के स्थान पर नगर परिषद चम्बा की अध्यक्ष नीलम नैय्यर को पार्टी उम्मीदवार बना दिया। इससे शहरी क्षेत्र के मतदाता और भाजपा कार्यकर्ता तो संतुष्ट हो गए, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र से संबंध रखने वाली इंदिरा कपूर का टिकट कटने के बाद लोगों में ग्राणीण क्षेत्र से भेदभाव करने का मुद्दा उठ गया है। अब शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में जमकर विरोध हो रहा है।





ग्रामीण क्षेत्रों से संबंध रखने वाले भाजपा कार्यकर्ताओं के समेत आम मतदाता भी विरोध पर उतर आ आएं हैं। ग्रामीण क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या अधिक और शहरी क्षेत्र में कम मतदाता होने की बात भी खूब उछाली जा रही है। ऐसे में भाजपा के लिए डैमेज कंट्रोल करना अब चुनौती बन गई है। हालांकि यह तो वक्त ही बताएगा कि इसे मुद्दे का कितना प्रभाव पड़ता है, मगर दो बार आवंटन होने से समीकरण बिगड़ते नजर आ रहे हैं।

बात अधूरी रह गई

दिल ना मिले थे  हमारे, मुलाकात अधूरी रह गई
ना गुफ्तगू हुई दरमियां हमारे बात अधूरी रह गई
देखना  याद आएंगे  बिछड़ कर वो पल अक्सर
पास होकर रुहों की ये मुलाकात अधूरी रह गई
नादान बने रहे हम इक दूजे से अनजान बनकर
यह सोचते गुजरी मेरी तो हर रात अधूरी रह गई 
इश्क समंदर डूब सके न हम दोनों जिसके अंदर
अकेले अकेले आंसुओं की बरसात पूरी बह गई
आज हम दूर हैं  दोनों इक  दूजे के पास रह कर
खिलें फूल चमन में  कैसे बरसात अधूरी रह गई
जज्बात जिंदा हैं हमारे दिल में कह नहीं सकते
तेरी मेरी बीच जो हर  मुलाकात  अधूरी रह गई
रविन्द्र कुमार अत्री 'अधीर'

मोहब्बत की टीस

मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं

आज सोते वक्त तुझे याद करता हूँ
संग बिताए पलों से खुद को आबाद करता हूँ
लौटा आता हूँ सुबह फिर वहीं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं

रिश्ता कितना लंबा रहा यह जरूरी नहीं
जितना जिया संग उससे तो जिन्दगी अधूरी नहीं
लग जाता हूँ बुनने फिर कहानियाँ नईं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं

तेरी बातें याद कर छा जाता है तिलिस्म
एकदम ठंडे पानी से नहा जाता है मेरा जिस्म
यह तो ख्व़ाब है हकीकत तो नहीं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं

तेरा वो बात बात पर रूठना अच्छा था
कैसा भी था मगर अपना प्यार तो सच्चा था
मोहब्बत की थी तुमसे कोई छल नहीं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं

माना कि बदल गया हूँ थोड़ा दिल से
फासले तो मिटते ही हैं अक्सर मिल के
खुदगर्ज ही बन जाऊं ऐसा तो नहीं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं

आना है तो लौटा आ इंतजार में हूँ
याद है आपको आपका प्यार मैं हूँ
बसा लेते हैं आशियाना अपना दूर कहीं
मानता हूँ कि तू अब मेरी नहीं
मगर निगाहें ढूंढती हैं तुझे यहीं कहीं

रविन्द्र कुमार 'अधीर'

रंग

कभी तो मैं तेरा रंग था
तेरी खुशबू और उमंग था
बुने थे जो  तूने संग मेरे
उन सपनों की पतंग था

तेरी धड़कन ओ चाहत था
तेरी सांसों की आहट था
दूरी जब होती थी दर्मियां
तेरे चेहरे की घबराहट था

एकदम से तूने बदला रंग
कसम खाई न जियेंगे संग
प्यार भरे दिल से खेली तू
देख कर अब हुआ हूँ दंग

कौन रोकेगा

मैं गुजर रहा हूँ तेरे शहर से
तुझे खुशबू तो आई होगी
याद कर वो प्यार के किस्से
आंखों में नमी तो आई होगी

वो ख्वाब भी याद आए होंगे
संग जीने के जो सजाए होंगे
चांदनी रात वो खुला आसमां
यादकर दो बूँद तो गिराई होंगी

हम यूं ही आएंगे इस शहर में
रात, सुबह शाम व दोपहर में
कौन मुझे अब रोकेगा यहाँ
कुछ इज्जत तो कमाई होगी

सच्चा प्यार

मोहब्बत में तेरा ख्याल भी अच्छा है
नादान बनो उम्रभर दिल तो बच्चा है
तुम करो या न करो मोहब्बत मुझसे
मैं करूंगा, मेरा प्यार  पाक सच्चा है

तू पल-पल बदले है अदांज-ए-बफा
कभी रूह में उतरे फिर होती है खफा
तेरी नादानियां भी कहर ढाये मुझपर
लगे है तेरा प्यार अभी तक कच्चा है

मेरी बेचैनी

इश्क को  इबादत मान बैठा हूँ
बस तुझे  पाने की ठान बैठा हूँ
तेरा रूठ कर जाना अच्छा नहीं
लौट आएगी कभी जान बैठा हूँ

हमने क़समें खाईं साथ जीने की
रूठी तो धड़कन बंद है सीने की
इश्क में रूठने का सिलसिला है
मैं भी तो मनाने की ठान बैठा हूँ

मिलके जुदा हुए तो कैसे जिएंगे
लहू इश्क में कैसे हमराही पियेंगे
न खुद बेचैन हो न मुझे बेचैन कर
मुझे गले लगा ले बांहे तान बैठा हूँ

फिर से मोहब्बत

चर्चाएं तेरी मेरी मोहब्बत की होंगी
बातें तो तेरी मेरी उल्फत की  होंगी

तू रूठकर कितने दिन गुजार लेगी
कब तक दिल के तूफान मार लेगी

तेरा वो जिक्र करना  दोस्तों से मेरा
तेरी  सांसों में बस नाम  रहना मेरा

याद तुझे तो आएंगी वो चांदनी रातें
जब छत पर होती थीं दिल की बातें

चांद भी गवाही देगा  ज़माने में मेरी
कैसी मोहब्बत थी भूलने वाली तेरी

मैं तो भूल नहीं सकता हूँ चाह कर
जी रहा हूँ मैं हर-पल आह भर कर

तेरा रूठकर जाना मुझे नहीं गंवारा
पाक और पवित्र था वो प्यार हमारा

कुछ तो हम दोनों ही रहे गल्फत में
कोई यूँ  नहीं छोड़ जाता उल्फत में

आओ फिर हम दोनों एक हो जाएँ
वही  पुरानी  मोहब्बत में खो जाएँ

मोहब्बत का रंग

कभी तो मैं तेरा रंग था
तेरी खुशबू... उमंग था
बुने थे जो  तूने संग मेरे
उन सपनों की पतंग था

तेरी धड़कन ओ चाहत था
तेरी सांसों की आहट था
दूरी जब होती थी दर्मियां
तेरे चेहरे की घबराहट था

एकदम से तूने बदला रंग
कसम खाई न जियें संग
प्यार भरे दिल से खेली तू
देख कर अब हुआ हूँ दंग

मीडिया : सवाल अस्तित्व का है

जिस तरह का दौर चल रहा है, उससे साफ है कि मीडिया अपनी भूमिका सही से नहीं निभा पा रहा। मीडिया जो सूचनाओं का माध्यम है आज पूरी तरह से बदल गया है। मीडिया अपने नाम के अर्थ को भी नहीं समझ पा रहा है कि आखिर इसका रोल क्या है?

आज हम मीडिया के युग में जी रहे हैं। एक ऐसा युग जिसमें घटना घटी नहीं कि सूचना आपके हाथ में है। ऐसा दौर जो तेजी से निकल रहा है। मीडिया संचार का माध्यम है। इसमें प्रिंट मीडिया यानी अखबार से लेकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया टीवी और अब अल्ट्रनेटिव मीडिया सभी शामिल हैं। पुराने समय में संचार का सबसे सशक्त माध्यम अखबार को माना जाता था। उसके बाद रेडियो आया और फिर टेलिविजन। उसके बाद 90वे के दशक में आए इंटरनेट के संचार के और माध्यम पैदा कर दिए। तकनीक  बढ़ने के साथ ही मीडिया जगत में क्रांति सी आ गई है। ऐसी क्रांति जो लगातार रफ्तार पकड़ रही है। चूंकि यह तकनीक का युग है तो सब कुछ फटाफट हो रहा है। और मीडिया जगत को भी इस तकनीक का इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ना पड़ा । अगर मीडिया जगत अपने आप को आधुनिक नहीं करता तो निश्चित तौर पर अपना अस्तित्व खो देता।

पुराने समय में मीडिया ने एक सचेतक की भूमिका निभाई है। पत्रकारों का भी विशेष रोल रहा है। जब भारत में पहली बार अखबार के रूप में मीडिया जगत की शुरूआत हुई तो उसे भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। उस वक्त में शासकों ने मीडिया पर अंकुश लगाने के कई प्रकार के कानून बनाए और लागू किए। कानून का उल्लंघन करने पर कई अखबारें बंद हो गईं और कई पत्रकार जेलों में बंद कर दिए गए। मीडिया पर अंकुश लगाने की शुरुआत इसके उत्थान से ही शुरू हो गई थी। मगर फिर भी मीडिया ने अपने आप को जिंदा रखा। जिंदा रखने में उस वक्त के पत्रकारों की अहम भूमिका रही।

आजादी से पूर्व भारत जब अंग्रेजों का गुलाम था, उस वक्त भी मीडिया ने अपनी अहम भूमिका निभाई। उस वक्त के पत्रकारों ने न सिर्फ समाजिक कुरीतियों के खिलाफ अभियान चलाए बल्कि उनमें सफल भी हुए। गणेश शंकर विद्यार्थी, महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, लाल लाजपत राय, पं जवाहर लाल नेहरू शुरुआत में पत्रकार ही रहे। आजादी से पूर्व इनका पत्रकार बनने का मूल उद्देश्य जनता का प्रतिनिधित्व करना था। आजादी के लिए भारत में छिड़े आंदोलन में इन पत्रकारों का विशेष योगदान रहा है। कई मीडिया संस्थान आजादी के वक्त तक भारत में पनप चुके थे। जब कांग्रेस का विभाजन गरम और नरम दल में हुआ तो मीडिया भी दोफाड़ हो गया। यानी मीडिया भी विभाजित हुआ। कई मीडिया संस्थान गरम दल का समर्थन करने लगे तो कई नरम दल का। विचारधारा में टकराव आया तो मीडिया में भी उसका असर देखने को मिला और अब आजादी के सात दशक गुजर जाने के बाद भी मीडिया की विचारधारा एक नहीं हो सकी है। एक वर्ग सत्ता लोलुप हो चुका है तो दूसरा धुर विरोधी। मीडिया संस्थान भी एक दूसरे को सरेआम नीचा दिखाते नजर आ रहे हैं।

जिस तरह का दौर चल रहा है, उससे साफ है कि मीडिया अपनी भूमिका सही से नहीं निभा पा रहा है। मीडिया जो सूचनाओं का माध्यम है आज पूरी तरह से बदल गया है। मीडिया अपने नाम के अर्थ को भी नहीं समझ पा रहा है कि आखिर इसका रोल क्या है।
मीडिया का रोल जनता का प्रतिनिधित्व करना है। मगर कर क्या रहा है, यह आज हर कोई भलिभांति समझ सकता है। मीडिया का एक वर्ग सत्ता का बखान करने से नहीं चूक रहा है तो एक वर्ग उसका कटाक्ष करने से। मीडिया की इस भूमिका से असल सूचना पूरी तरह से गायब हो गई है। लोगों को कोई भी सूचना सही से नहीं मिल पा रही है। एक अखबार खोलो तो सूचना कुछ है और दूसरा खोलो तो सूचना कुछ। अब जनता तय नहीं कर पा रही है कि आखिर सही सूचना है कौन सी। अब जनता असमंजस में है कि आखिर विश्वास करें तो किस पर। एक अखबार या टीवी कुछ बता रहा है तो दूसरा कुछ। मैं मानता हूं कि हर अखबार या टीवी न्यूज चैनल की अपनी भाषा और बर्तनी है। लिखने या पेश करने के तरीके अलग हैं। मगर सूचनाओं में इतना अंतर कैसे। यह सब तब हो रहा है, जब सत्ता या शासक वर्ग कुछ करने का बखान कर रहा है। किसी योजना का लोगों को मिले लाभ का आंकड़ा पेश किया जा रहा है। सत्ता समर्थक मीडिया हमेशा यही दिखा रहा है कि सरकार की आमुख योजना से इतने लोगों को लाभ मिल गया है और बाकि कितनों को दिया जा रहा है। इसके उल्ट जो सरकार का विरोधी है वह कुछ लोगों को पकड़ता है जो योजना का लाभ लेने का पात्र हो सकते हैं। उनसे बातचीत करेगा। पूछेगा कि योजना का लाभ मिला। अगर कहीं व्यक्ति ने इंकार कर दिया तो वह योजना को ही असफल बना देगा। वह यह नहीं दिखाएगा कि सरकार की इस योजना से कितने लोगों को लाभ मिला है और कितना को योजना का  लाभ अगले कुछ समय में मिलेगा। सत्ता समर्थक सिर्फ सरकार का बखान करने पर तुला है और विरोधी सरकार की नाकामियों और धज्जियां उड़ाने पर। दोनों ही स्थिति समाज के लिए खतरनाक हैं।

चूंकि मीडिया समाज के मानसिक पटल पर असर डालता है। यह बात सत्ता पक्ष भी जनता है और विपक्ष भी। इसका दोनों जमकर प्रयोग कर रहे हैं और मीडिया जगत अलग-अलग विचारधाराओं का तोता बनकर रह गया है। कुछ मीडिया संस्थान अपने आप को आजाद बता रहे हैं, लेकिन इनको चलाने वाले वहीं हैं, जो पूर्व में किसी के खास समर्थक रहे हैं। जब मीडिया में इनकी बाट लग गई और निकाले गए तो अपने अस्तित्व की तलाश में यहां-वहां भटके और अंत में अल्ट्रनेटिव मीडिया यानी वेब मीडिया का सहारे हो लिए। मैंने बीते कुछ दिनों में इतने सारे वेब मीडिया के पोर्टल और वेबसाइट और यू-ट्यूव चैनल देखे जो हाल ही में शुरू हुए प्रतीत होते हैं। मगर अपने आपको 10 साल पुराना और 12 साल पुराना बता रहे हैं। किस नए तरीके के संचार माध्यम की शुरुआत करना बुरी बात नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी है तो इसका प्रयोग भी करना चाहिए। और खुले दिल से करना चाहिए, लेकिन कुछ सिद्धांतों की पालना भी जरूरी है।

मैं मानता हूं कि मीडिया को सत्ता विरोधी होना चाहिए, इससे देश के विकास को बल मिलेगा। लोगों में विश्वनीयता बढ़ेगी। लेकिन सत्ता विरोधी होने का मतलब यह कतई नहीं है कि आप देश की साख की ही बाट लगा दें। किसी भी मीडिया संस्थान को देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता व एकता को ध्यान में रखना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों के दौरान जो कुछ हुआ है, उसने देश में मीडिया की विश्वनीयता पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। लोगों को मीडिया की सूचनाओं पर भी विश्वास नहीं हो रहा है। लोग मीडिया से जुड़े लोगों को भी संदेह भरी नजरों से देखते हैं। और तो और मीडिया पर गोदी मीडिया और दलाल जैसा शब्दों से भी संबोधित किया जा रहा है। कुल मिलाकर देखा जाए तो स्थिति चिंताजनक है।

अगर मीडिया संस्थान चाहते हैं कि वह अपनी विश्वसनीयता को दोबारा से लोगों में बहाल करें तो इसके लिए बड़े स्तर पर बदलाव की आवश्यकता है। सभी मीडिया संस्थानों और पत्रकारों को अपने काम करने के तरीके बदलने होंगे। मीडिया को सचेतक औऱ जनता का प्रतिनिधि बनना होगा। सरकार की सफलता और असफलता दोनों को एक साथ दिखना होगा। सरकारों के कामकाज को जनता के बीच लाना होगा। मीडिया को किसी एक पक्ष नहीं बल्कि समग्र सूचना जनता तक पहुंचानी होगी। अगर कोई सरकार अच्छा काम करती है तो उसको प्रोत्साहित करना होगा और बुरा करती है तो उसका कटाक्ष करते हुए अपने सुझाव भी देने होंगे। पत्रकार साथियों को अपनी विचाराधारा को अलग रखकर पत्रकारिता करनी होगा। जब मीडिया इस तरह से का करेगा तो निश्चित तौर पर जनता में अपना विश्वास स्थापित करेगा। अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब मीडिया के प्रति जनता के मन में कोई लगाव नहीं रहेगा। अगर लगाव ही नहीं रहा तो अस्तित्व तो अपने आप ही खत्म हो जाएगा। कई लोगों  ने तो अभी भी न्यूज चैनलों को देखना ही बंद कर दिया है। लोगों का इस तरह मीडिया से मोहभंग होना कोई छोटी बात नहीं है। यह मीडिया के अस्तित्व का सवाल है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाम परिवारवाद

भारतीय राजनीति में परिवारवाद लंबे समय से हावी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को इसने खोखला बनाने का काम किया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार चलाने के लिए जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है। मगर एक ही परिवार के लोग एक क्षेत्र से लेकर देश तक को संभालने की लालसा रखें, तो यह लोकतंत्र नहीं बल्कि वही पुराने जमाने की राजवाड़ाशाही वाली व्यवस्था प्रतीत होती है। राजवाड़ाशाही में पहले बाप गद्दी पर बैठेगा फिर बेटा। अगर उनकी न चली तो फिर बहुओं और बेटियों को आगे लाओ। मतलब की दूसरे काबिल लोग हैं ही नहीं जो क्षेत्र अथवा देश की कमान संभाल सकें। लोकतांत्रिक व्यवस्था है तो उसे परिवारवादी व्यवस्था नहीं बनाया जाना चाहिए। अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था को परिवारवादी व्यवस्था में बदला जा रहा है तो इसमें हम सब मतदाताओं का भी दोष है। आखिर हम क्यों किसी एक ही परिवार को बार-बार आगे करते रहें। भारतीय राजनीति में सैकड़ों ऐसे परिवार हैं, जिनका पेश ही सिर्फ राजनीति करना है। उनका राजनीतिक प्रोफेशनल भी कहा जा सकता है।
सबसे पहले देश की राजनीति में परिवार की मिसाल पर नेहरू परिवार ही आता है। जब से देश आजाद हुआ है, तब इस परिवार के सदस्य राजनीति में ही हैं। चाहे पंडित जवाहर लाल नेहरू हो, उनकी बेटी इंदिरा गांधी हो। नेहरू के राजनीति में आने के बाद पीढ़ी दर पीढ़ी परिवार राजनीति में ही है। इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी, संजय गांधी, फिर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और फिर प्रियंका गांधी। जम्मू कश्मीर में भी कुछ ऐसे नेता हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी राजनीति में हैं, जिसमें अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार प्रमुख हैं। पहले शेख अब्दुल्ला, फारूख अब्दुल्ला और उमर अब्दुला। अब्दुल्ला परिवार की तीसरी पीढ़ी भी राजनीति में है। मुफ्ती मोहम्मद सईद के बाद अब महबूबा मुफ्ती भी राजनीति में हैं। हिमाचल, पंजाब के साथ देश के कई राज्यों के राजनीति परिवार ऐसे हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी सियासत कर रहे हैं।

सोशल मीडिया बनाम शोषण मीडिया

बुधवार सुबह भारत का एक एक मिग 21 विमान में क्रैश हुआ है। गिरा जाकर पाकिस्तान की सीमा में। पायलट पैराशूट से उतर गया था। लेकिन वह उतरे पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के एक गांव में। वहां लोगों से उन्होंने जब पूछा कि यह कौन-सा स्थान है यानी भारत है या पाकिस्तान, तो वहां के लोगों ने उन्हें भ्रमित किया कि यह भारत ही है। थोड़ी देर में ही इसकी सूचना पाकिस्तानी आर्मी को दी जाती है। इसके बाद पाकिस्तानी आर्मी उसे अपनी हिरासत में ले लेती है। उसके बाद से पाकिस्तान से विडियो आते हैं। 
पाक आर्मी आंखों पर पट्टी बंधे आर्मी की वर्दी पहने एक घायल आदमी को कहीं ले जा रही है। एक वीडियो और है जिसमें उसी व्यक्ति को भीड़ पकड़ कर मार रही है। उसे पीट रही है और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगा रही है। फोटो भी है, जिसमें व्यक्ति के चेहरा खून से लथपथ साफ दिख रहा है। यह वीडियो और फोटो भारत में खूब शेयर की जा रही है। कुछ लोग युद्ध के रूप में मोदी जी से 'बदला' लेने की मांग कर रहे हैं। कुछ युद्ध के खिलाफ स्टेटमेंट देने के लिए, विंग कमांडर अभिनंदन के फोटो को इस्तेमाल कर रहे हैं। दोनों ही पक्षों के लिए ये तस्वीरें काम की हैं। कई लिख रहे हैं कि देखो अपने वतन के सैनिक का ये खून। देखो किसी के बेटे, भाई या पति का ये खून। देखो उसकी हिम्मत। देखो किसी तरह से उसके साथ मारपीट हो रही है। इसीलिए हमें युद्ध चाहिए और हमें युद्ध नहीं चाहिए के बड़े-बड़े लेख लिखे जा रहे हैं। कोई नहीं सोच रहा कि आखिर कर क्या हैं। ड्यूटी के समय घायल हुए एक जांबाज ऑफिसर से सहानुभूति, समझ आती है, मगर पाकिस्तान के खिलाफ इसका इस्तेमाल करके क्या दिखाना चाहते हो। सोशल मीडिया पर शेयर कर कर के उसी जांबाज का तिरस्कार रहे हैं। उसके घरवालों, साथियों, दोस्तों, सबके दिलों को ठेस पहुंचा रहे हो। हर शेयर, हर पोस्ट, हर कैप्शन उनको हताश कर रही है। इसके साथ ही उन लोगों को भी प्रताड़ित और शोषित कर रही है जिनके अपने सीमा पर देश की रक्षा करने गए हैं और इस वक्त सीमा पर हैं। किसी को एहसास नहीं कि हर एक शेयर, हर एक पोस्ट ना सिर्फ अभिनंदन के घरवालों के लिए नासूर बन रहा है, बल्कि आप आम जनता को भी सन्न और हैरान कर रहा है कि हालात खराब हो रहे हैं। आपका सोशल मीडिया अभिनंदन से जुड़े लोगों और सीमा पर तैनात वीर जवानों के परिजनों के लिए शोषण का मीडिया बन रहा है।

आप राष्ट्रवादी नहीं उपद्रवी हो

क्या राष्ट्रवाद के नाम पर अति उत्साहित होना सही है। आप राष्ट्रवादी हो सही है, मगर अति राष्ट्रवादी होना सही नहीं है। राष्ट्रवाद तो कभी नहीं कहता है कि आप किसी संपत्ति को नुकसान पहुंचाओ। तोड़-फोड़ करो या फिर आगजनी की घटना को अंजाम दो। अगर हम राष्ट्रवाद का चोला पहनकर इस तरह के कृत्य को अंजाम देते हैं तो हम राष्ट्रवादी नहीं हैं। राष्ट्रवादी अपने ही राष्ट्र की संपत्ति को, चाहे वो निजी हो या सार्वजनिक नुकसान नहीं पहुंचा सकता है। उसके अपने ही सिद्धांत यह सब करने की आज्ञा नहीं देते। अगर वो राष्ट्रवादी होने के साथ जिम्मेदार नागरिक है तो वह दूसरों को भी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने से रोकेगा। अगर नहीं रोकता है तो भी वह राष्ट्रवादी नहीं हो सकता। राष्ट्रवादी कभी नहीं चाहेगा कि उसके देश में मौजूद किसी भी व्यक्ति अथवा संपत्ति को नुकसान हो। एक सच्चा राष्ट्रवादी अपने देश की संपत्ति की सुरक्षा करेगा। वह अपने सामने किसी भी व्यक्ति को किसी भी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाने देगा। जम्मू के गुज्जर नगर में 14 फरवरी को पुलवामा आत्मघाती हमले के बाद 15 फरवरी को जो कुछ भी हुआ, वह राष्ट्रवाद के नाम पर मेरी नजर में एक धब्बा है। यह अति उत्साही राष्ट्रवादियों को घटिया कोशिश थी, जो वाहनों की तोड़-फोड़ की और वाहनों को आग के हवाले किया। आखिर नुकसान किसका हुआ, अपने ही राष्ट्र का। उसके बाद लगे कर्फ्यू में सभी व्यापारिक संस्थान बंद रहे। व्यापार नहीं हो पाया। नुकसान किसका हुआ, राष्ट्र का। शिक्षण संस्थान बंद रहे, नुकसान किसका हुआ, युवाओं का नहीं कि उनको शिक्षा हासिल करने में दिक्कत आई, बल्कि राष्ट्र का ही नुकसान हुआ। जिस भी तरह से आप सोच सकते हो उससे राष्ट्र का ही नुकसान हुआ। तो क्या एक राष्ट्रवादी होने के नाते आपको यह शोभा देता है कि आप राष्ट्र को नुकसान पहुंचाओ। नहीं, एक सभ्य नागरिक और राष्ट्रवादी को यह किसी भी कीमत पर शोभा नहीं देता है। अगर राष्ट्रवादी हो तो राष्ट्रवाद को सही मायनों में समझो कि आखिर राष्ट्रवाद है क्या? और राष्ट्रवादी हो तो आपका कर्तव्य क्या है?
पुलवामा में जो कुछ हुआ वो पूरे देश को झकझोरने वाली घटना है। यह एक अपूरणीय क्षति है। जो 40 जवान भारत ने खोए हैं, उनकी भरपाई नहीं हो सकती है। एक जवान को तैयार करने से लेकर उसके जीवन पर करोड़ों रूपये खर्च होते हैं। एक इंसान के तौर पर भी देखा जाए तो यह मानव जीवन अमूल्य है, इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती है। एक फौजी का शहीद होना भी देश के लिए भारी क्षति है और पुलवामा में तो 40 शहीद हुए हैं। यह देश के लिए भयावाह क्षति है। पुलवामा हादसे ने हमें करोड़ों का नुकसान पहुंचाया, ऊपर से आप लोग राष्ट्रवादी बनकर आ गए सड़कों पर। वाहनों को जला दिया। तोड़ दिया। फोड़ दिया। इससे आपने राष्ट्रवादी होने का सबूत नहीं दिया बल्कि आपने देश को और नुकसान पहुंचाने की कोशिश की। दुश्मन ने आपके रक्षकों को शहीद करके देश को नुकसान पहुंचाया और आप बदला लेने की मांग लेकर सड़कों पर उतरे और तोड़-फोड़ करके खुद अपने देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। फर्क क्या रहा दुश्मनों और आपके बीच में? आप राष्ट्रवाद के नाम पर उपद्रवी हो। दुश्मन हमेशा कुछ भी करता है तो वह सोच समझ कर करता है। सबसे पहले जिसे चोट पहुंचानी हो, उसकी नब्ज को टटोलता है। बर्दाश्त करने की क्षमता पहचानता है और उसके बाद ही रणनीति के तहत चोट देता है। वही पुलवामा में भी हुआ। हो सकता है कि जम्मू के सांइस कॉलेज के हॉस्टल में 12 फरवरी को हुई देशविरोधी नारेबाजी भी उसी रणनीति का हिस्सा हो। पहले वहां भड़काया और फिर पुलवामा में अटैक करके दोहरी चोट दे दी। इस घटना को इसलिए जोड़ रहा हूं क्योंकि 14 फरवरी को पुलवामा हमले के बाद कुछ कश्मीर से ऑपरेट होने वाले सोशल मीडिया अकाउंट से कमेंट्स आए थे कि यह जम्मू के सांइस काॅलेज की घटना का बदला है। दुश्मन ने अपनी रणनीति के तहत आपको पटखनी दी है। हमला भी आप पर हुआ और सड़कों पर भी आप उतरे। बाजार भी आपके बंद हुए और सब्जियां और अन्य जरूरी सामान के लिए भी आपको ही परेशान होना पड़ा। हर चीज तो आपको ही झेलनी पड़ी दुश्मन की रणनीति के तहत भी और आपकी अपनी कमजोरियों या यूं कहें कि आपकी अति राष्ट्रवादी सोच के कारण पैदा हुई समस्या के कारण भी।
मैं आपके राष्ट्रवादी होने का विरोध नहीं कर रहा हूँ। मैं भी आपकी तरह ही राष्ट्रवादी हूँ। मुझमें और आप में फर्क है थोड़ा। आप अति राष्ट्रवादी हो और मैं राष्ट्रवादी होने के साथ जिम्मेदार नागरिक भी हूँ। आप राष्ट्रवादी बनिए, लेकिन अति राष्ट्रवादी नहीं। आपका अति राष्ट्रवादी वाला रवैया आपको ही नुकसान पहुंचाएगा।

रविन्द्र कुमार अत्री

मुहब्बती तराने

तुम मुझसे जो हुए नाराज
न घुंघरू बजे और न साज
मुहब्बती तराने भी गुम हैं
बेवफा का दिया जो ताज
गर कोई थी हमसे नाराजगी
जाहिर तो कर देते एक बार
गैरों जैसा अपनों को तड़पना
ये तो नहीं है ना अपना प्यार
मुहब्बती तराने गूंजते थे जो
बिना किसी संगीत ओ साज
ऐसे निगाह क्यों फेर ली तुमने
क्या हुआ सनम को मेरी आज
देखो, मुहब्बत पर निगाह से
ख्याल आपका छीन बैठा चैन
तुम तो अब कभी आते नहीं हो
छलक जाते हैं बस मेरे ये नैन
गलतफहमियां थी दरमियां में
पर क्यों नहीं की तुमने वो दूर
कैसी वो चाहत है आपकी जान
जो करे बिछड़ने के लिये मजबूर 
थूक दो न अब गुस्सा दिल का
कुछ मैं आऊं कुछ तू आ करीब
मैं बन जाऊँ फिर से तेरा हबीब
तू भी बन जा रविन्द्र का नसीब

आज के अखबार



बाजार के आज कल बड़े समाचार मिल रहे हैं
गली मोहल्ले में कई नामी पत्रकार मिल रहे हैं
जनमानस से जुड़े समाचार मात्र एक काॅलम
विज्ञापनों से भरे सब बड़े अखबार मिल रहे हैं

अब पेड न्यूज खा रही है अखबार के पूरे पन्ने
समाज नहीं सिर्फ पैसों के सरोकार मिल रहे हैं
समाचारों पर हावी हो गया लाखों का विज्ञापन
प्रबंधन के आगे संपादक भी लाचार मिल रहे हैं

जगाता नहीं है कोई समाचार अब प्रशासन को
जन हित के आज समाचार शब्द चार मिल रहे हैं
पत्रकारिता का माहौल ही बदल गया है रविन्द्र
पत्रकार-संपादक भी पैसों के पैरोकार मिल रहे हैं

अब पत्रकार भी कमीशन पर कर रहे हैं काम
संपादक पेड न्यूज ही के तलबगार मिल रहे हैं
जन पीड़ा के लिए नहीं  एक काॅलम का स्पेस
विज्ञापन आगे लाचार जन समाचार मिल रहे हैं।।

राष्ट्रीय प्रेस दिवस का बहाना, चाटुकारों पर है निशाना

आज 16 नवंबर है राष्ट्रीय प्रेस दिवस है। देशभर में तमाम पत्रकार साथी मना रहे हैं। मगर चिंतन और मंथन करने वाली बात यह है कि इसको मनाया क्यों जा रहा है? जब प्रेस दिवस मनाने वाले अपने साथियों से पूछता हूं कि यह क्यों मनाया जाता है तो कईयों को यह पता ही नहीं है। जिस भी दिवस विशेष को मना रहे हैं और उसके बारे में जानकारी न हो तो इसको मनाने का क्या औचित्य? 4 जुलाई 1966 को भारत की प्रेस परिषद की स्थापना की गई थी। और 16 नवंबर 1966 को सक्रिय रूप से काम करना शुरू कर दिया था। पत्रकारों को समाज का वॉचडॉग कहा जाता है। और जो यह प्रेस परिषद है यानी प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया है यह एक सिद्धांतवादी वॉचडॉग है। जैसे एक पत्रकार समाज की घटनाओं पर नजर रखता है, वैसे ही प्रेस परिषद पत्रकारिता पर नजर रखती है। यह की प्रेस/मीडिया कहीं गलत जानकारियां तो नहीं प्रेषित कर रहा है। बात प्रेस दिवस मनाने की चल रही है तो इसी पर ही चर्चा करना बेहतर है। प्रेस परिषद ने पत्रकारिता के लिए भी कुछ नियम और कानून बनाए हैं। एक पत्रकार को उनका पालन करना भी जरूरी है। जब किसी पत्रकार को उन नियमों और सिद्धांतों का पालन ही नहीं करना है तो इसको मनाना भी क्यों। 
आज पत्रकारिता का क्षेत्र व्यापक हो गया है। पत्रकारिता एक ऐसी कला है जो जन-जन तक सूचनात्मक, शिक्षाप्रद एवं मनोरंजनात्मक संदेश पहुंचाने का काम करती है। समाचार पत्र एक ऐसी उत्तर पुस्तिका है, जिसके लाखों परीक्षक एवं अनगिनत समीक्षक हैं। तथ्यपरकता, यथार्थवादिता, संतुलन एवं वस्तुनिष्ठता पत्रकारिता के आधारभूत और मुख्य तत्व हैं। इनकी कमियां पत्रकारिता क्षेत्र में बहुत बड़ी है। पत्रकार चाहे प्रशिक्षित है या नहीं, यह सबको पता है कि पत्रकारिता तथ्यपरक होनी चाहिए। मगर चिंता का विषय है कि आज पत्रकारिता में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर, बढ़ा-चढ़ा कर या फिर घटाकर सनसनी फैलाने की प्रवृति बढ़ी है।
समाचारों में पक्षधरता एवं अंसतुलन भी देखने को मिल रहा है। इस प्रकार समाचारों में निहित स्वार्थ साफ झलकता है। आज समाचारों में विचार को मिश्रित किया जा रहा है। समाचारों का संपादकीयकरण हो रहा है। विचारों पर आधारित समाचारों की संख्या बढऩे लगी है और वास्तविक समाचार गौण होने लगे है। एक अजीब-सा पत्रकारिता का दौर चल रहा है। 
मीडिया को समाज का दर्पण है, चाहे वे समाचारपत्र हो या समाचार चैनल, मूलतः समाज का दर्पण माना जाता है। दर्पण का काम है जिस तरह की तस्वीर है, उसी तरह की दिखाना। मीडिया को अगर दर्पण की संज्ञा दी गई है तो उसे काम भी उसी तरह से करना चाहिए, ताकि वह समाज की हू-ब-हू तस्वीर समाज के सामने पेश कर सकें।
आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि अब अधिकारियों से ज्यादा प्रेस के खिलाफ ज्यादा शिकायतें देखने को मिलती हैं, लेकिन इसकी आम लोगों को जानकारी नहीं होती है क्योंकि कोई भी व्यक्ति हो या संस्थान अपनी गलतियों को कभी नहीं छापता है। प्रेस के खिलाफ अधिक शिकायतें मिलने की जानकारी भारतीय प्रेस परिषद ने अपनी रिपोर्ट में भी दी है। जिसमें कहा गया है कि 'भारत में प्रेस ने ज्यादा गलतियां की हैं एवं अधिकारियों की तुलना में प्रेस के खिलाफ अधिक शिकायतें दर्ज हैं।' 
पत्रकारिता आजादी से पहले एक मिशन थी, उस दौरान महात्मा गांधी सहित तमाम पत्रकारों ने आजादी के मिशन को लेकर पत्रकारिता की। आजादी मिल गई तो देश के तमाम समाचार पत्र मिशन विहीन से हो गए थे। आजादी के बाद पत्रकारिता एक उत्पाद बन गई हैं खास कर 1992 के बाद। हाँ, बीच में आपातकाल के दौरान जब प्रेस पर सेंसर लगा था, तब पत्रकारिता एक बार फिर थोड़े समय के लिए मिशन बन गई थी। अब तो उत्पाद के साथ-साथ पत्रकारिता सनसनी फैलाने का जरिया, एजेंडा चलाने का जरिया और कमीशन कमाने का माध्यम बन गया है। आज हर कोई वैवसाइट बनाकर पत्रकारिता करके बस धन बटोरने में जुटा हुआ, उस असल में पत्रकारिता से कोई मतलब नहीं है। 
कई लोग ऐसे हैं जो सिर्फ पैसा कमाने के लिए ही मीडिया हाउस बना कर बैठे हैं, 50-50 कमीशन पर पत्रकार रखे हैं। सच कहा जाए तो अब पत्रकारिता अब पत्रकारिता न होकर धनचरिता और चाटुकारिता बनकर रह गई है। जहां से पैसा मिला, वहां की सच्चा झूठा समाचार फैला दो बस। टारगेट तो पैसा कमाना था, वो तो किसी भी रूप में कमाया जा सकता है, वही हो रहा है आज के दौर में। जिस काम के लिए भारतीय प्रेस परिषद का गठन किया था आज वो काम दूर-दूर तक देखने को नहीं मिलता है। परंतु इन तमाम सामाजिक बुराइयों के लिए सिर्फ मीडिया ही दोषी नहीं है, इसके लोग भी जिम्मेदार हैं कि उन्होंने कभी मीडिया ने प्रकाशित किया यह प्रेस/मीडिया वालों से पूछा ही नहीं। जब अच्छे बुरे कामों पर प्रशंसा और भर्त्सना नहीं होगी तो वही होगा जो आज हो रहा है।

मेरी लड़खड़ाती जुबान

मैं अपने गांव के स्कूल में पढ़ा हूँ, मुझमें अंग्रेजी भाषा सीखने का क्रेज नहीं है। स्कूल में अंग्रेजी सीखने पर कोई खास ध्यान नहीं दिया था। जब टीचर टेंस यानी काल के बारे में पढ़ाते तो मेरे पल्ले कोई बात नहीं पड़ती थी। मतलब कि कुछ समझ नहीं आता था। सिर्फ काल के बारे में यहीं पता चला था कि भूतकाल को अंग्रेजी में पास्ट टेंस, वर्तमान काल को प्रजेंट टेंस और भविष्य काल को फ्यूचर टेंस कहते हैं। शायद उस वक्त मैंने अंग्रेजी सीखने में दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। मुझ में सिर्फ यह था कि मैं हिन्दी को अपनी राष्ट्र भाषा मानता था और उसी में बात करना और काम करना चाहता था। अंग्रेजी विषय की पढ़ाई मैं सिर्फ पास होने के लिए करता था, कि बस इस क्लास को किस तरह से पास कर लूँ। चाहे वो विषय को रटा मारने की बात हो या फिर तुक्का मारने की। किसी न किसी तरह से मैं विषय को पास कर लेता था, लेकिन मेरी अंग्रेजी में कोई रूची नहीं थी। वहां से जब में शाहपुर कॉलेज गया तो अंग्रेजी विषय जरूर रख लिय़ा, लेकिन हिन्दी को नहीं छोड़ा। हिन्दी तो मेरी रोज की दिनचर्या थी। जब कोई मेरे सामने अंग्रेजी में बात करता था तो लगता और अक्सर यही सोचता कि यह लोग अंग्रेजी क्यों बोलते हैं। लेकिन मैंने कभी इस चीज को तब अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। बीच में ही कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी और निजी यूनिवर्सिटी में मास कम्युनिकेशन एडवरटाइजमेंट एंड जर्नालिज्म विषय में दाखिल ले लिया वो भी डिस्टेंस एजुकेशन प्रोग्राम के तहत। साथ ही में मैं एक हिन्दी समाचार पत्र के साथ जुड़ गया और स्ट्रिंगर के तौर पर चम्बा जिला मुख्यालय में काम करने लगा। मास कम्युनिकेशन एडवरटाइज्मेंट एंड जर्नालिज्म में तो पूरी तरह से अंग्रेजी। मेरा सिर चकराने लगा, बड़ी-बड़ी अंग्रेजी की किताबें देखकर। फिर जुगाड़ लगाया और उसके हिन्दी के नोटिस हासिल कर किसी तरह से मैंने बीए कर ली। पत्रकारिता करते करते थोड़ा अभ्यास किया और अंग्रेजी में बात करने वाले लोगों के हाव भाव को देखकर अंग्रेजी को समझना शुरू किया। अंग्रेजी थोड़ी-थोड़ी समझ में आ जाती है। मगर लिखने और बोलने में तो मेरी बोलती ही बंद हो जाती है। कभी-कभी जब बोलने लगता हूं तो इज, एम, आई कहां लगना है कोई पता नहीं, जहां बोलते वक्त निकल गया, लगा दिया। 2015 में बीए करने के बाद वर्ष 2016 की शुरूआत में मैंने पंजाब केसरी समाचार पत्र का जालन्धर कार्यालय ज्वाइन किया और बतौर उप संपादक काम करने लगा। वहां जब लोकल डेस्क पर काम करना होता था तो कोई चिंता नहीं होती, मगर जनरल डेस्क पर काम करने की बारी आती तो लगता था कि मानो मेरे ऊपर काम का कितना बोझ आ गया हो। परेशान हो जाता था। मगर कुछ साथी थे तो वो अंग्रेजी के समाचार को हिन्दी में संपादित करने में मदद कर देते थे। कभी-कभी गूगल ट्रांसलेट में पूरे समाचार को डाल कर समाचार को समझ कर फिर हिन्दी में लिखता था। सब कुछ तो मुझे समझ नहीं आता था लेकिन साथियों और गूगल की मदद से मेरा कुछ हद तक काम हो जाता था। दिसंबर 2017 में मैंने पंजाब केसरी समाचार पत्र से नौकरी को त्याग पत्र दे दिया और दैनिक जागरण समाचार पत्र ज्वाइन कर लिया। दैनिक जागरण के जम्मू कार्यालय में उप संपादक का काम शुरू करने लगा। यहां मुझे अंग्रेजी से कोई मतलब नहीं था। यहां तो सभी समाचार हिन्दी में आते थे। बोल-चाल में भी मैं अधिकतर हिन्दी का इस्तेमाल करता था और हूँ भी।

अब मेरी जुबान तो तब ज्यादा लड़खड़ाने लगी है, जब मैंने केन्द्रीय विश्वविद्यालय में एमए करने के लिए एडमिशन लिया। पांच सबजेक्ट हैं। उनमें से 3 सबजेक्ट पढ़ाने वाले प्राचार्य मेरी यह बात मान गए कि मैं हिन्दी में परीक्षा दूंगा, लेकिन एक महोदय ऐसे हैं जो मेरी हिन्दी से परेशान हैं शायद। नहीं परेशान नहीं कहूँगा। हो सकता है कि वह चाहते हों कि मैं अंग्रेजी सीखूं। वो प्राचार्य महोदय ऐसे हैं कि मुझे किसी न किसी तरह से अंग्रेजी सिखाना ही चाहते हैं। मगर मेरी लालसा कहां हैं अंग्रेजी सीखने की। मेरे लिए तो हिन्दी ही सबकुछ है। हिन्दी समाचार पत्रों में काम करते आज लगभग छह साल हो रहे हैं, तो सबसे ज्यादा तवज्जो हिन्दी को ही देता हूँ। अब यूनिवर्सिटी में कभी-कभी एसाइन्मेंट मिलती है, बाकि प्राचार्य तो हिन्दी में लिखी एसाइन्मेंट ले लेते हैं, लेकिन वो नहीं। अगर रिकॉर्डिंग वाली एसाइन्मेंट हो तो फिर मेरे उच्चारण को भी बड़े ध्यान से सुनते हैं कि इसने कौन-से शब्द का उच्चारण कैसे किया है। अगर कहीं थोड़ी सी भी कमी दिख गई तो मुझसे क्लास रूम में सबके सामने शब्दों का उच्चारण करवाते हैं। कभी कहते हैं कि यह शब्द बोलना है तो पूरा मुंह खोलो। इस शब्द का मुंह बना के उच्चारण करो। कभी कहते हैं शब्द को मुंह में घुमाकर बोलो। मतलब किसी न किसी तरह से अंग्रेजी सिखाने की कोशिश हो रही है। वैसे किसी भाषा को सीखने में कोई बुराई नहीं है। मगर जिसको सिखाया जा रहा है उसमें उसको सीखने की लालसा भी तो होनी चाहिए। जब लालसा होगी सीखने की तभी तो उस भाषा को सीख पाऊंगा। पर उन्हें शायद यह नहीं पता है कि अंग्रेजी भाषा और उसके भारी भरकम शब्द मुझे में वो भावना पैदा नहीं कर पाते हैं, जिससे की मुझमें उसे सीखने की इच्छा पैदा हो सके, जैसे हिन्दी भाषा का कोई भी नया शब्द होगा, मेरी कोशिश होती है कि मैं उसे सीखूं, समझू और सही उच्चारण करूँ। मैं यहां अंग्रेजी भाषा की बुराई नहीं कर रहा हूँ, बल्कि अपनी लड़खड़ाती जुबान की बात कर रहा हूँ। कभी कभार वही महोदय मुझे लेक्चर देने के लिए कह देते हैं। वो भी अंग्रेजी में। यह सुनकर मेरे तो छक्के छूट जाते हैं कि शुरुआत कहाँ से करूँ। कौन सा टेंस कहां लगाना है कोई पता नहीं, कौन सा शब्द किसी शब्द से पहले या फिर बाद में बोला जाना है, कोई पता नहीं है। तो फिर जब में लेक्चर देने लगता हूँ तो मेरे मुंह में जो शब्द आता है, वो कह देते हूँ। चाहे वो गलत हो या गलत उच्चारण करके बोलूं या फिर गलत स्थान पर, बस बोल देता या हूँ। मगर जब फिर उस शब्द के बारे में सोचता हूँ कि कहीं आगे पीछे तो नहीं बोला फिर तो बस सोचने की देरी होती है। बस फिर क्या  मेरी जुबान लड़खड़ा जाती है और फिर मैं उसी भाषा में बात शुरू कर देता हूँ। पता है न कौन सी भाषा। हिन्दी... हिन्दी में बोलने शुरू कर देता हूँ।

अॉटो रिक्शा और जिंदगी का महत्व

शायद यही ज़िंदगी का इम्तिहान होता है।
हर एक शख्स किसी का गुलाम होता है।।
कोई ढूढ़ता है ज़िंदगी भर मंज़िलों को।
कोई पा के मंज़िल भी बेमुकाम होता है।।
फोटो।। साभार... इंटरनेट।।

दो वर्ष पुरानी बात है। रविवार का दिन था। मैं घर से जालंधर जा रहा था। रात 11 बजे चम्बा से पठानकोट के लिए बस ली। तड़के 3.45 पर बस से मुझे पठानकोट बस स्टेंड उतार दिया।यह हिमाचल का बस स्टेंड था, साथ में रेलवे स्टेशन था। पहले सोचा कि क्यों न ट्रेन से जालंधर चला जाए। मगर मन में ख्याल आया कि कहीं ट्रेन में आंख लग गई तो कहीं और ही न पहुंच जाऊं। चेहरे पर साफ डर झलक रहा था, शायद। बस से और भी कई लोग साथ उतरे, लेकिन किसी को मैं जानता नहीं था। तो किसी से बात भी नहीं की। मैं रेलवे स्टेशन के अंदर गया, वहां मौजूद स्टेशन मास्टर से ट्रेन के बारे मैं पूछा तो जवाब मिला कि पांच बजे के करीब आएगी। मैं मन मैं सोचने लगा कि घंटा भर यहां क्या करूंगा। चूंकि बस सर्विस लगातार है तो मैं स्टेशन से बाहर आ गया। यहां वहां देखने लगा कि कोई अॉटो रिक्शा मिल जाए तो मैं पंजाब के बस स्टेंड पहुंच सकूं। मैं थोड़ा से आगे गया तो एक रिक्शे पर अधेड़ उम्र का व्यक्ति सोया था। 

मैंने आवाज दी ... बस स्टेंड चलोगे। 
वापस आवाज आई... क्यों नहीं साहब चलूंगा ना... पर 50 रुपये लूंगा। 
मैं... चाचा 20 रुपये दूंगा। 
बोले... साहब आप अकेले हो तो मेरे चक्कर की कमाई भी पूरी नहीं होगी। रिक्शे में दो आदमी चलते तो 40 रुपये ले लेता। आप तो अकेले हो तो साहब इतने तो लगेंगे। 
मैं कहा... चाचा जी... फिर भी 10 रुपये ज्यादा है। 
चाचा बोले... साहब... रात भर भी तो जागते हैं। 
मैंने कहा...चाचा तो यह तो आपका काम है ना, तो मैं क्या करूं, लेकिन मैं 20 ही दूंगा। चलना है तो चलो। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि यह सुनकर चाचा को गुस्सा-सा आ गया। 
तपाक से कड़क आवाज में... हमारा भी शौक नहीं हैं कि हम रात-रात भर जागें। पापी पेट के लिए ही यह सब कर रहा हूँ। और काम। कैसा काम यहां तो हमारी जिंदगी दांव पर है। क्या काम करते हो... चाचा ने मुझसे पूछा।
मैं धीरे से... चाचा वो पंजाब केसरी अखबार में सब-एडिटर हूँ। 
चाचा बोले.. अच्छा जी... आप भी करते हो 8-9 घंटे काम करते होंगे ना...। 
मैं... जी चाचा जी। 
चाचा बोले... बेटा आप क्या जानो कि काम क्या होता है। आप तो एसी कमरे में बैठ कर कम्प्यूटर पर बैठ कर काम करते हो ना
मुझे लगा कि चाचा मेरे काम को कम आंक रहे हैं। 
मैं... चाचा जी दुनिया में जो कुछ हो रहा होता है उसकी जानकारी हम ही आप तक पहुंचाते हैं...। 
चाचा... कमरे में बैठ कर दुनिया की जानकारी रखते हो। बहुत बड़ा काम करते हो। लेकिन हम तो 18 से 20 घंटे तक इस रिक्शे के पैंडल मारते हैं। दिन रात जागते रहते हैं, बस लोगों को उनके स्टेशन पर पहुंचाते रहते हैं। सिर्फ 2 से 3 घंटे तक सोते हैं। 
मैं... अच्छा छोड़ो ना चाचा... चलो... बस... मुझे बस स्टेंड छोड़ दो। जो आपने कहा वही पैसे आपको मिल जाएंगे।
चाचा... आजा चल बैठ....
जैसे ही बैठा चाचा ने पूरे जोश के साथ रिक्शे को पैंडल मारा और रेलवे स्टेशन से बाहर निकला... करीब डेढ किलोमीटर की दूरी थी। रिक्शे पर बैठाकर चाचा पूरे जोश से पैंडल मारता गया। करीब पांच मिनट बाद चाचा जी थोड़े थके से प्रतीत हुए। मैं चाचा से.... चाचा जी आपको थकान नहीं लगती। रोजाना 18-20 घंटे तक इसी तरह से पैंडल मारते हो। थोड़ा रूक जाओ। बीड़ी-सिगरेट पीते हो।
चाचा ने बीड़ी का बंडल निकाला और बीड़ी जलाई और मेरी ओर बंडल करते हुए बोले लो साहब... नहीं चाचा आप  पियो...
चाचा कहने लगे जिंदगी मिली है साहब तो जीनी ही पड़ेगी।
मैं... सिर हिलाते हुए हांजी का ईशारा किया।
थोड़ी देर में हम फिर वहां से चल दिए...
चाचा ने फिर कहा कि बेटा जिंदगी  उतरा चढ़ाव आते रहते हैं। हम तो बस चलते जाना है। चाचा के यह शब्द सुनकर में सोच में पड़ गया था कि चाचा ने कितनी बड़ी बात को कितनी सहजता के साथ कह दिया।
थोड़ी देर में हम बस स्टेंड पर पहुंच चुके थे मैंने चाचा को 50 रुपये निकाल कर दिए और चाचा का धन्यवाद किया। 

दुनिया में आपको ऐसे हजारों लोग मिल जाएंगे, जो इस तरह से जिंदगी जीते हैं। उनके जीवन का संघर्ष हमें भी निरंतर संघर्षशील रहने की प्रेरणा देता है।

एक चालक की जिंदगी क्या है। यही सिर्फ कि लोगों को उनकी मंजिल तक पहुंचाना है, पर खुद का पता नहीं हमारी जिंदगी का क्या ठिकाना है।।

उस चाचा जी का नाम नहीं पूछा पाया था और ना वो चाचा मुझे कभी दिखाई दिए हैं।

घर में मार खाकर भी भारत को डराता पाक

भारत ने पहले 2016 को सर्जिकल स्ट्राइक कर आतंक के खिलाफ एक ऑपरेशन किया था, लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली। परिणाम यह रहा कि आतंकी नासूर लगातार फैल रहा है। कश्मीर के कई हिस्सों को अपनी चपेट में ले रहा है। अब नासूर का एक ही उपचार है कि भारत दोबारा से कोई बड़ा ऑपरेशन करे, ताकि आतंक के नासूर का जख्म खत्म हो सके। सर्जिकल स्ट्राइक का जश्न मना कर हम लोगों में जोश तो पैदा कर सकते हैं, मगर बीमारी का जड़ से खत्म होना जरुरी है।


दो वर्ष पूर्व यानी 28 सितंबर 2016 में भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सीमा में घुस कर सर्जिकल स्ट्राइक की। ऐसा करके सेना ने दिखा दिया कि वह देश और नागरिकों की सुरक्षा करने के लिए पूरी तरह से सक्षम है। दुश्मन को उसी की भाषा में जबाव देने की हिम्मत रखती है। यह सर्जिकल स्ट्राइक 18 सितंबर को जम्मू-कश्मीर के उड़ी सेक्टर में एलओसी पर भारतीय सेना के स्थानीय मुख्यालय पर हुए आतंकी हमले का जबाव था। हमले में 18 भारतीय जवान शहीद हुए थे। साथ में चार आतंकियों को भी सेना ने चार आतंकियों को भी मार गिराया था। हमले के ठीक 10 दिन बाद भारतीय सेना के कमांडो रात को तीन किलोमीटर भीतर तक पाकिस्तानी सीमा में घुसे, जैसा की सेना ने बताया था और पाकिस्तानी चौकियों को तबाह कर दिया। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद उड़ी हमले से देश के लोगों में पनप गुस्सा थोड़ा कम हुआ। देश के लोगों ने भारतीय सेना की सराहना और खूब पीठ थपथपाई। मगर उस दौरान कुछ राजनीतिक पार्टियों ने नेताओं ने सेना के पराक्रम पर भी सवाल उठाए और सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगे। खूब राजनीति हुई। सत्ताधारी पार्टी ने सेना की कार्रवाई को अपनी उपलब्धि करार दिया और बड़े-बड़े होर्डिंगस लगाए ताकि राजनीति में इसका लाभ लिया जा सके। सर्जिकल स्ट्राइक के लगभग दो साल बाद जून माह में भारतीय सेना ने इस वीडिया सार्वजनिक किया। वीडियो में भारतीय सेना की उस कार्रवाई दिखाई गई कि कैसे पीओके में 3 किमी घुसकर आतंकवादियों को ढेर किया गया था। अब जब दो साल बीत चुके हैं तो आखिर सरकार को ऐसी क्या सूझी जो शिक्षण संस्थानों में सर्जिकल स्ट्राइक की वर्षगांठ मनाने को कहा। हालांकि बाद में सरकार ने अपने इस फैसले को बदल दिया था। 

सवाल यह उठता है कि आखिर हम एक सर्जिकल स्ट्राइक कर अपनी पीठ इतनी क्यों थपथपा रहे हैं, वो भी दो वर्ष बाद। कारण साफ है चुनाव आने वाले हैं, राजनीतिक फायदा भी तो लेना है। सर्जिकल स्ट्राइक को मैं एक असफल प्रयास मानता हूँ। क्यों? क्योंकि पाकिस्तान को उसकी छाती पर बैठ कर भी पीट दिया, लेकिन उसके हरकतें सुधरी नहीं हैं। उसने हमले करना भी नहीं छोड़ा। रोज भारतीय सीमा में गोलीबारी करता है। रोज भारतीय सैनिक शहीद होते हैं। पाकिस्तानी सेना थोड़ी चुप हो तो आतंकी सक्रिय हो जाते हैं। मतलब कि रोज कोई न कोई कायराना हरकत या फिर आतंकी हमला। भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक का पाकिस्तान पर कोई असर नहीं पड़ा है। उसने अपना व्यवहार नहीं बदला है। पड़ोसी के साथ रिश्ते रखना भी नहीं सीखा। घर में मार खा चुका है। मगर पड़ोसी को डरा रहा है। भारत के एक राज्य के बराबर जनसंख्या है मगर भारत को डरा रहा है। उसकी कमजोर नहीं हुई। उसकी रिश्ते की नीति भी साफ नहीं हुई। उसने भारत में आतंकी भेजने बंद नहीं किए। घर से लेकर बाहर तक भारत के खिलाफ जहर उगल रहा है। यानी देखा जाए तो उसका रुख वही है जो सर्जिकल स्ट्राइक से पहले थे। आतंक की पनीरी तैयार कर रहा है और भारत भेज रहा है। तो फिर भारत की सर्जिकल स्ट्राइक कितनी सफल है? यह तब सफल होता जब पाक अपना व्यवहार बदल लेता। भारत में आतंकी भेजना बंद कर देता और जहर भी न उगलता। और भारतीय सेना में आतंकी हमले करवाना और गोलीबारी करना बंद कर देता। अब तक पाक पोषित आतंक और गोलीबारी एक नासूर बन चुका है। 
देखा जाए तो भारत को सर्जिकल स्ट्राइक पर मंथन करने की जरुरत है। जैसे एक चिकित्सक किसी बीमार व्यक्ति को उसकी नब्ज देखने के बाद पहले गोली देता। अगर उससे बीमारी ठीक न हो तो अपने उपचार के तरीके बदलता है। दवाईयां बदलता है और नए तरीके से उपचार देता है। अब तो नासूर का रूप ले चुका है। और नासूर का एक ही उपचार है। ऑपरेशन। भारत ने पहले को सर्जिकल स्ट्राइक कर आतंक के खिलाफ एक ऑपरेशन किया था, लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली। परिणाम यह रहा कि आतंकी नासूर लगातार फैल रहा है। कश्मीर के कई हिस्सों को अपनी चपेट में ले रहा है। अब नासूर का एक ही उपचार है कि भारत दोबारा से कोई बड़ा ऑपरेशन करे, ताकि आतंकी के नासूर का जख्म खत्म हो सके। सर्जिकल स्ट्राइक का जश्न मना कर हम लोगों में जोश तो पैदा कर सकते हैं, मगर बीमारी का जड़ से खत्म होना जरुरी है।


ठंडी घुप अंधेरी रात की फिल्म

मेरी कल्पना के अनुसार उस रात को तो यही हुआ होगा ''ठंडी घुप अंधेरी रात... दुश्मन के रडारों की पकड़ से दूर... जैसे फिल्मों में दिखाया जाता है। आसमान में 30 जाबांज भारतीय कमांडो, रॉकेट प्रोपेल्ड गन्स, हथियारों से लैस...पैराशूट के जरिए हेलीकॉप्टर से आतंकी ठिकानों को नेस्तनाबूद करने का मकसद लेकर पाकिस्तानी इलाके में उतरते हैं। 35,000 फीट की ऊंचाई से तेजी से नीचे उतरते, पिन ड्रॉप साइलेंस, जमीन पर किसी को हल्की-सी भी भनक नहीं लगती। एलओसी के पार पाकिस्तानी बैरीकेड्स से रेंग-रेंग कर आगे बढ़ते। घातक जाबांज बिना कोई आहट दिए अपने टारगेट ठिकानों पर पहुंचे और फिर अचानक धमाके, स्मोक बमों से हर तरफ धुआं और गोलीबारी... और तबाही का मंजर... दुश्मन को खबर भी नहीं कि आखिर यह हुआ क्या? और अपने मकसद को पूरा कर वापस लौटते जाबाजों के चेहरों पर बदला लेना का वो सुकून साफ झलक रहा होगा।"

हैप्पी टीचर डे

अगर न होते जीवन में टीचर
जाने कैसा होता अपना फ्यूचर
मां ने ऊंगली पकड़ चलना सिखाया
टीचर ने शिक्षा संसार का बोध कराया

मां बाप के बाद ॠण है टीचर का
रखता है आधार बच्चे के फ्यूचर का
टीचर बिना ना होता शब्दों का ज्ञान
संवारते हैं जीवन, बढ़ाते हैं सम्मान

सच कहूँ तो टीचर बिना हम कुछ नहीं
बिना ज्ञान के हमारा फ्यूचर कुछ नहीं
अज्ञानी को ज्ञानी बनाते हैं टीचर
गर न होते तो कैसा होता अपना फ्यूचर।।

-रविन्द्र कुमार अत्री @

अबकी राखी

साल भर उड़े आसमां में उम्मीदों के पाखी
तब जाके आई थी इस साल की यह राखी

सुबह उठा, फिर खूब चहुंओर राहें निहारी
आशा थी, उमंग थी  आएगी बहना हमारी

भाई बहन के नाम था,  साल का एक दिन
पल पल गुजारा मैंने पल पल को गिन गिन

मजबूरियों और हालात ने मुझे किया है दूर
पर बहना का प्यार तो कम नहीं हुआ हजूर

इंतजार करते    खुली  आंखों में सपने देखे
दीदी के आने तक सूने हाथ मैंने अपने देखे

काफी वक्त तो राह  निहारते कोने में गुजारा
सूने हाथ संग यूँ ही गुजरा ये साल भी हमारा

खुद्दारी पर राजनीति भारी


खुद्दारी या आत्मसम्मान वह पूंजी है जिसे कोई भी व्यक्ति शायद किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहता है। अपनी खुद्दारी पर हर व्यक्ति नाज करता रहा है। कई बार उसे जताने और बताने में भी झिझक महसूस नहीं करता। अपने वुजूद की अहमियत को समझने वाला और अपने आप का सम्मान करने वाले व्यक्ति की अपनी ही पहचान होती है। उसे अपने बजूद को लेकर चर्चाएं नहीं चाहिए। खुद्दार व्यक्ति सब कुछ बर्दाश्त कर लेता है लेकिन अपनी खुद्दारी पर लगने वाली हल्की-सी चोट से उसे तिलमिला देती है। खुद्दारी पर शायर फानी बदायुनी ने कहा है... 
'दुनिया मेरी बला जाने, महँगी है या सस्ती है
मौत मिले तो मुफ़्त न लूँ हस्ती की क्या हस्ती है'

शायद यह दो लाइन में कही गई बात एक खुद्दार बंदे के लिए काफी है। खुद्दार कभी अपनी कमजोरियों और लाचारियों का ढिंढोरा नहीं पीटता है। किस भी हालात में हो, उसे उसका सामना करना है। कैसे करना है? पता नहीं बस करना है। अगर आप भी खुद्दार हो तो आपको भी पता होगा, कि खुद्दारी को जिंदा रखने के लिए क्या करना है। खैर विषय को ज्यादा नहीं भटकाना चाहता हूँ, इसलिए सीधे प्वाइंट पर आ जाता हूँ। जब आपकी खुद्दारी की बात आती है तो आप अपनी खुद्दारी का ढिंढोरा तो नहीं पिटवाओगे? नहीं न। तो हर कोई खुद्दार व्यक्ति यही सोचता है। आजकल हिमाचल में सरकार की नाकामियां कहें या फिर यूं कहें कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए गरीब लोगों की खुद्दारी पर खूब सियासत की जा रही है। सियासत इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जो बंदा यह काम कर रहा है, वो पॉलिटिकल पार्टी से जुड़ा हुआ है। हिमाचल के सैकड़ों गांवों में जा चुका है। वहां के गरीब परिवारों से मिल रहा है। उनकी आर्थिक स्थिति क्या है, इस पर फेसबुक पर लंबे-लंबे आर्टिकल लिख रहा है। परिवार की आर्थिक सामाजिक और जिस प्रकार से सहानुभूति दिखाकर संबंधित परिवार से जानकारी मिल सकती है, उसको पब्लिक प्लेटफार्म पर शेयर कर रहा है। हजारों लोग उसे शेयर कर रहे हैं। उसकी एक अपील पर कई लोग संबंधित परिवार की मदद कर रहे हैं, जितनी हो सकती है। कहने को तो यह समाज के उस दबे कुचले व्यक्ति के उत्थान के लिए अच्छी पहल है, लेकिन जिस परिवार की दशा का सार्वजनिक प्लेटफार्म पर जिक्र किया जा रहा है, उसकी ईज्जत का क्या? जो लोग उस परिवार की स्थिति के बारे में नहीं जानते थे, उनमें तो उस परिवार के झंडे झुला दिए ना। यानी परिवार की निजी जिंदगी को दुनिया में लाकर रख दिया ना। कहने को यह समाजसेवी है और इस समाज सेवा के पीछे का मकसद क्या है, हर कोई जानता है। मैं किसी को गलत नहीं ठहरा रहा हूँ, लेकिन जो हो रहा है गलत हो रहा है। गरीब लोगों की आड़ में भविष्य की राजनीतिक पृष्टभूमि तैयार करना उचित नहीं है। किसी परिवार की माली हालत को दुनिया में लाकर उसकी लाचारी पर सियासत करना उचित नहीं है।  

खुद्दार पर एक लघुकथा भी साथ  

एक रिक्शा चालक का बेटा रविवार के दिन घर फोन करता है "पिताजी आप ठीक तो हो ना? पैसो की कमी मत देखना,अब मैं बहुत पैसा कमाने लगा हूँ।" पर उसे क्या पता उसका बाप जब से वो छोटा था तभी से रिक्शा ही उसका कमाऊं पूत था और आज भी उसी से रोजी रोटी चलाता है। खुद्दार पिता मन ही मन सोचता है "पैसा वो भेजता है हाथ भी न लगाता हूँ,और क्यों लगाऊँ। बुढ़ापे में इतना खुद्दार जो हो गया हूँ। उसको पैसे कमाने लायक बनाना मेरा फर्ज था, मेरी जिम्मेदारी लेना उसकी कोई मजबूरी हो ये मैं नही समझता।" बस यही सोच कर रोज वह सर्दी हो, गर्मी हो, बारिश हो या तूफान यानी कुछ भी हो ये रिक्शा चलाना उसकी खुद्दारी है। अब भी जब हर रविवार के दिन बेटे का फोन आता है तो पिताजी  उसे फोन पर ही आश्वस्त कर देते हैं कि तेरे दिए पैसों से मेरी जिंदगी आराम से चल रही है, लेकिन फिर भी रोजाना अपने काम में लग जाते हैं।

एनआरसी मामला : करीब दो करोड़ बांग्लादेशी हैं भारत में


14 जुलाई 2004 को तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने लोकसभा में बताया था कि देश में 1.20 करोड़ बांग्लादेशी रहते हैं। इनमें से 50 लाख असम में हैं और 57 लाख बंगाल में। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने 16 नवंबर 2016 भारत में रहने वाले बांग्लादेशी अप्रवासियों की तादाद दो करोड़ बताई थी। वहीं बंगाल के भाजपा नेता मोहित राय दावा करते हैं, 'बंगाल में कम से कम 80 लाख बांग्लादेशी रहते हैं। इनकी वजह से राज्य के युवकों को रोजगार नहीं मिल रहा है और वह दूसरे राज्यों का रुख कर रहे हैं।' उधर, अरुण जेटली ने ममता बनर्जी के उस बयान को ट्वीट भी किया। उन्होंने लिखा, '4 अगस्त 2005 को ममता बनर्जी ने लोकसभा में कहा था कि बंगाल में घुसपैठ आपदा बन गया है। मेरे पास बांग्लादेशी और भारतीय वोटर लिस्ट है। यह बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है। मैं यह जानना चाहती हूं कि आखिर सदन में कब इस पर चर्चा होगी?


25 मार्च, 1971 के पहले से रह रहे लोग ही भारतीय  

'असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के सोमवार को जारी दूसरे एवं अंतिम मसौदे के मुताबिक, असम में 40 लाख लोग अवैध तरीके से रह रहे हैं। दरअसल, नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें जिन लोगों के नाम नहीं होंगे उन्हें अवैध नागरिक माना जाएगा। एनआरसी में उन सभी भारतीय नागरिकों के नामों को शामिल किया जाएगा जो 25 मार्च, 1971 से पहले से असम में रह रहे हैं।

किन राज्यों में एनआरसी होता है लागू 

एनआरसी उन्हीं राज्यों में लागू होती है जहां अन्य देश के नागरिक भारत में आ जाते हैं। आमतौर पर यह उन्हीं राज्यों में लागू होता है जिन की सीमाएं अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगी होती हैं।

बंटवारे के बाद भी जारी रहा आना-जाना 

पश्चिम बंगाल में घुसपैठ का मुद्दा देश के विभाजन जितना ही पुराना है। राज्य की 2,216 किलोमीटर लंबी सीमा बांग्लादेश से लगी है। इसका लंबा हिस्सा जलमार्ग से जुड़ा होने और कई जगह सीमा खुली होने की वजह से देश के विभाजन के बाद से ही पड़ोसी देश से घुसपैठ का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह अब तक थमा नहीं है। 1947 में जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो कुछ लोग असम से पूर्वी पाकिस्तान चले गए। लेकिन, असम में भी जमीन होने के कारण लोगों का दोनों और से आना-जाना बंटवारे के बाद भी जारी रहा।

1979 में शुरू हुआ आंदोलन


तत्कालीन, पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश से असम में लोगों का अवैध तरीके से आने का सिलसिला जारी रहा। इससे वहां पहले से रह रहे लोगों को परेशानियां होने लगीं। असम में विदेशियों का मुद्दा तूल पकड़ने लगा। साल 1979 से 1985 के बीच छह साल तक असम में एक आंदोलन चला। तब यह सवाल उठा कि यह कैसे तय किया जाए कि कौन भारतीय नागरिक है और कौन विदेशी। 

असम समझौता

इसके बाद 15 अगस्त, 1985 को ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) और दूसरे संगठनों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का समझौता हुआ। इसे असम समझौते के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के तहत ही 25 मार्च, 1971 के बाद असम आए लोगों की पहचान की जानी थी। असम समझौते के बाद आंदोलन से जुड़े नेताओं ने असम गण परिषद नाम के राजनीतिक दल का गठन कर लिया जिसने राज्य में दो बार सरकार भी बनाई।

मनमोहन सिंह ने किया था अपडेशन का फैसला

2005 में तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह ने तय किया कि असम समझौते के तहत 25 मार्च, 1971 से पहले अवैध तरीके से दाखिल हो गए लोगों का नाम एनआरसी में जोड़ा जाएगा। विवाद के बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। इसके बाद साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में आइएएस अधिकारी प्रतीक हजेला को एनआरसी अपडेट करने का काम दे दिया गया। इधर, चुनाव आयोग ने नागरिकता संबंधी कागजात दिखा पाने में असमर्थ लोगों को डी- कैटेगरी में डाल दिया है। ‘डी’ यानी ‘संदेहास्पद’ वोटर्स की श्रेणी 1997 के चुनाव में असम में लाई गई थी।

एनआरसी के मुद्दे पर इतनी भड़की हुई क्यों हैं ममता बनर्जी


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