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मेरी लड़खड़ाती जुबान

मैं अपने गांव के स्कूल में पढ़ा हूँ, मुझमें अंग्रेजी भाषा सीखने का क्रेज नहीं है। स्कूल में अंग्रेजी सीखने पर कोई खास ध्यान नहीं दिया था। जब टीचर टेंस यानी काल के बारे में पढ़ाते तो मेरे पल्ले कोई बात नहीं पड़ती थी। मतलब कि कुछ समझ नहीं आता था। सिर्फ काल के बारे में यहीं पता चला था कि भूतकाल को अंग्रेजी में पास्ट टेंस, वर्तमान काल को प्रजेंट टेंस और भविष्य काल को फ्यूचर टेंस कहते हैं। शायद उस वक्त मैंने अंग्रेजी सीखने में दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। मुझ में सिर्फ यह था कि मैं हिन्दी को अपनी राष्ट्र भाषा मानता था और उसी में बात करना और काम करना चाहता था। अंग्रेजी विषय की पढ़ाई मैं सिर्फ पास होने के लिए करता था, कि बस इस क्लास को किस तरह से पास कर लूँ। चाहे वो विषय को रटा मारने की बात हो या फिर तुक्का मारने की। किसी न किसी तरह से मैं विषय को पास कर लेता था, लेकिन मेरी अंग्रेजी में कोई रूची नहीं थी। वहां से जब में शाहपुर कॉलेज गया तो अंग्रेजी विषय जरूर रख लिय़ा, लेकिन हिन्दी को नहीं छोड़ा। हिन्दी तो मेरी रोज की दिनचर्या थी। जब कोई मेरे सामने अंग्रेजी में बात करता था तो लगता और अक्सर यही सोचता कि यह लोग अंग्रेजी क्यों बोलते हैं। लेकिन मैंने कभी इस चीज को तब अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। बीच में ही कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी और निजी यूनिवर्सिटी में मास कम्युनिकेशन एडवरटाइजमेंट एंड जर्नालिज्म विषय में दाखिल ले लिया वो भी डिस्टेंस एजुकेशन प्रोग्राम के तहत। साथ ही में मैं एक हिन्दी समाचार पत्र के साथ जुड़ गया और स्ट्रिंगर के तौर पर चम्बा जिला मुख्यालय में काम करने लगा। मास कम्युनिकेशन एडवरटाइज्मेंट एंड जर्नालिज्म में तो पूरी तरह से अंग्रेजी। मेरा सिर चकराने लगा, बड़ी-बड़ी अंग्रेजी की किताबें देखकर। फिर जुगाड़ लगाया और उसके हिन्दी के नोटिस हासिल कर किसी तरह से मैंने बीए कर ली। पत्रकारिता करते करते थोड़ा अभ्यास किया और अंग्रेजी में बात करने वाले लोगों के हाव भाव को देखकर अंग्रेजी को समझना शुरू किया। अंग्रेजी थोड़ी-थोड़ी समझ में आ जाती है। मगर लिखने और बोलने में तो मेरी बोलती ही बंद हो जाती है। कभी-कभी जब बोलने लगता हूं तो इज, एम, आई कहां लगना है कोई पता नहीं, जहां बोलते वक्त निकल गया, लगा दिया। 2015 में बीए करने के बाद वर्ष 2016 की शुरूआत में मैंने पंजाब केसरी समाचार पत्र का जालन्धर कार्यालय ज्वाइन किया और बतौर उप संपादक काम करने लगा। वहां जब लोकल डेस्क पर काम करना होता था तो कोई चिंता नहीं होती, मगर जनरल डेस्क पर काम करने की बारी आती तो लगता था कि मानो मेरे ऊपर काम का कितना बोझ आ गया हो। परेशान हो जाता था। मगर कुछ साथी थे तो वो अंग्रेजी के समाचार को हिन्दी में संपादित करने में मदद कर देते थे। कभी-कभी गूगल ट्रांसलेट में पूरे समाचार को डाल कर समाचार को समझ कर फिर हिन्दी में लिखता था। सब कुछ तो मुझे समझ नहीं आता था लेकिन साथियों और गूगल की मदद से मेरा कुछ हद तक काम हो जाता था। दिसंबर 2017 में मैंने पंजाब केसरी समाचार पत्र से नौकरी को त्याग पत्र दे दिया और दैनिक जागरण समाचार पत्र ज्वाइन कर लिया। दैनिक जागरण के जम्मू कार्यालय में उप संपादक का काम शुरू करने लगा। यहां मुझे अंग्रेजी से कोई मतलब नहीं था। यहां तो सभी समाचार हिन्दी में आते थे। बोल-चाल में भी मैं अधिकतर हिन्दी का इस्तेमाल करता था और हूँ भी।

अब मेरी जुबान तो तब ज्यादा लड़खड़ाने लगी है, जब मैंने केन्द्रीय विश्वविद्यालय में एमए करने के लिए एडमिशन लिया। पांच सबजेक्ट हैं। उनमें से 3 सबजेक्ट पढ़ाने वाले प्राचार्य मेरी यह बात मान गए कि मैं हिन्दी में परीक्षा दूंगा, लेकिन एक महोदय ऐसे हैं जो मेरी हिन्दी से परेशान हैं शायद। नहीं परेशान नहीं कहूँगा। हो सकता है कि वह चाहते हों कि मैं अंग्रेजी सीखूं। वो प्राचार्य महोदय ऐसे हैं कि मुझे किसी न किसी तरह से अंग्रेजी सिखाना ही चाहते हैं। मगर मेरी लालसा कहां हैं अंग्रेजी सीखने की। मेरे लिए तो हिन्दी ही सबकुछ है। हिन्दी समाचार पत्रों में काम करते आज लगभग छह साल हो रहे हैं, तो सबसे ज्यादा तवज्जो हिन्दी को ही देता हूँ। अब यूनिवर्सिटी में कभी-कभी एसाइन्मेंट मिलती है, बाकि प्राचार्य तो हिन्दी में लिखी एसाइन्मेंट ले लेते हैं, लेकिन वो नहीं। अगर रिकॉर्डिंग वाली एसाइन्मेंट हो तो फिर मेरे उच्चारण को भी बड़े ध्यान से सुनते हैं कि इसने कौन-से शब्द का उच्चारण कैसे किया है। अगर कहीं थोड़ी सी भी कमी दिख गई तो मुझसे क्लास रूम में सबके सामने शब्दों का उच्चारण करवाते हैं। कभी कहते हैं कि यह शब्द बोलना है तो पूरा मुंह खोलो। इस शब्द का मुंह बना के उच्चारण करो। कभी कहते हैं शब्द को मुंह में घुमाकर बोलो। मतलब किसी न किसी तरह से अंग्रेजी सिखाने की कोशिश हो रही है। वैसे किसी भाषा को सीखने में कोई बुराई नहीं है। मगर जिसको सिखाया जा रहा है उसमें उसको सीखने की लालसा भी तो होनी चाहिए। जब लालसा होगी सीखने की तभी तो उस भाषा को सीख पाऊंगा। पर उन्हें शायद यह नहीं पता है कि अंग्रेजी भाषा और उसके भारी भरकम शब्द मुझे में वो भावना पैदा नहीं कर पाते हैं, जिससे की मुझमें उसे सीखने की इच्छा पैदा हो सके, जैसे हिन्दी भाषा का कोई भी नया शब्द होगा, मेरी कोशिश होती है कि मैं उसे सीखूं, समझू और सही उच्चारण करूँ। मैं यहां अंग्रेजी भाषा की बुराई नहीं कर रहा हूँ, बल्कि अपनी लड़खड़ाती जुबान की बात कर रहा हूँ। कभी कभार वही महोदय मुझे लेक्चर देने के लिए कह देते हैं। वो भी अंग्रेजी में। यह सुनकर मेरे तो छक्के छूट जाते हैं कि शुरुआत कहाँ से करूँ। कौन सा टेंस कहां लगाना है कोई पता नहीं, कौन सा शब्द किसी शब्द से पहले या फिर बाद में बोला जाना है, कोई पता नहीं है। तो फिर जब में लेक्चर देने लगता हूँ तो मेरे मुंह में जो शब्द आता है, वो कह देते हूँ। चाहे वो गलत हो या गलत उच्चारण करके बोलूं या फिर गलत स्थान पर, बस बोल देता या हूँ। मगर जब फिर उस शब्द के बारे में सोचता हूँ कि कहीं आगे पीछे तो नहीं बोला फिर तो बस सोचने की देरी होती है। बस फिर क्या  मेरी जुबान लड़खड़ा जाती है और फिर मैं उसी भाषा में बात शुरू कर देता हूँ। पता है न कौन सी भाषा। हिन्दी... हिन्दी में बोलने शुरू कर देता हूँ।

अॉटो रिक्शा और जिंदगी का महत्व

शायद यही ज़िंदगी का इम्तिहान होता है।
हर एक शख्स किसी का गुलाम होता है।।
कोई ढूढ़ता है ज़िंदगी भर मंज़िलों को।
कोई पा के मंज़िल भी बेमुकाम होता है।।
फोटो।। साभार... इंटरनेट।।

दो वर्ष पुरानी बात है। रविवार का दिन था। मैं घर से जालंधर जा रहा था। रात 11 बजे चम्बा से पठानकोट के लिए बस ली। तड़के 3.45 पर बस से मुझे पठानकोट बस स्टेंड उतार दिया।यह हिमाचल का बस स्टेंड था, साथ में रेलवे स्टेशन था। पहले सोचा कि क्यों न ट्रेन से जालंधर चला जाए। मगर मन में ख्याल आया कि कहीं ट्रेन में आंख लग गई तो कहीं और ही न पहुंच जाऊं। चेहरे पर साफ डर झलक रहा था, शायद। बस से और भी कई लोग साथ उतरे, लेकिन किसी को मैं जानता नहीं था। तो किसी से बात भी नहीं की। मैं रेलवे स्टेशन के अंदर गया, वहां मौजूद स्टेशन मास्टर से ट्रेन के बारे मैं पूछा तो जवाब मिला कि पांच बजे के करीब आएगी। मैं मन मैं सोचने लगा कि घंटा भर यहां क्या करूंगा। चूंकि बस सर्विस लगातार है तो मैं स्टेशन से बाहर आ गया। यहां वहां देखने लगा कि कोई अॉटो रिक्शा मिल जाए तो मैं पंजाब के बस स्टेंड पहुंच सकूं। मैं थोड़ा से आगे गया तो एक रिक्शे पर अधेड़ उम्र का व्यक्ति सोया था। 

मैंने आवाज दी ... बस स्टेंड चलोगे। 
वापस आवाज आई... क्यों नहीं साहब चलूंगा ना... पर 50 रुपये लूंगा। 
मैं... चाचा 20 रुपये दूंगा। 
बोले... साहब आप अकेले हो तो मेरे चक्कर की कमाई भी पूरी नहीं होगी। रिक्शे में दो आदमी चलते तो 40 रुपये ले लेता। आप तो अकेले हो तो साहब इतने तो लगेंगे। 
मैं कहा... चाचा जी... फिर भी 10 रुपये ज्यादा है। 
चाचा बोले... साहब... रात भर भी तो जागते हैं। 
मैंने कहा...चाचा तो यह तो आपका काम है ना, तो मैं क्या करूं, लेकिन मैं 20 ही दूंगा। चलना है तो चलो। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि यह सुनकर चाचा को गुस्सा-सा आ गया। 
तपाक से कड़क आवाज में... हमारा भी शौक नहीं हैं कि हम रात-रात भर जागें। पापी पेट के लिए ही यह सब कर रहा हूँ। और काम। कैसा काम यहां तो हमारी जिंदगी दांव पर है। क्या काम करते हो... चाचा ने मुझसे पूछा।
मैं धीरे से... चाचा वो पंजाब केसरी अखबार में सब-एडिटर हूँ। 
चाचा बोले.. अच्छा जी... आप भी करते हो 8-9 घंटे काम करते होंगे ना...। 
मैं... जी चाचा जी। 
चाचा बोले... बेटा आप क्या जानो कि काम क्या होता है। आप तो एसी कमरे में बैठ कर कम्प्यूटर पर बैठ कर काम करते हो ना
मुझे लगा कि चाचा मेरे काम को कम आंक रहे हैं। 
मैं... चाचा जी दुनिया में जो कुछ हो रहा होता है उसकी जानकारी हम ही आप तक पहुंचाते हैं...। 
चाचा... कमरे में बैठ कर दुनिया की जानकारी रखते हो। बहुत बड़ा काम करते हो। लेकिन हम तो 18 से 20 घंटे तक इस रिक्शे के पैंडल मारते हैं। दिन रात जागते रहते हैं, बस लोगों को उनके स्टेशन पर पहुंचाते रहते हैं। सिर्फ 2 से 3 घंटे तक सोते हैं। 
मैं... अच्छा छोड़ो ना चाचा... चलो... बस... मुझे बस स्टेंड छोड़ दो। जो आपने कहा वही पैसे आपको मिल जाएंगे।
चाचा... आजा चल बैठ....
जैसे ही बैठा चाचा ने पूरे जोश के साथ रिक्शे को पैंडल मारा और रेलवे स्टेशन से बाहर निकला... करीब डेढ किलोमीटर की दूरी थी। रिक्शे पर बैठाकर चाचा पूरे जोश से पैंडल मारता गया। करीब पांच मिनट बाद चाचा जी थोड़े थके से प्रतीत हुए। मैं चाचा से.... चाचा जी आपको थकान नहीं लगती। रोजाना 18-20 घंटे तक इसी तरह से पैंडल मारते हो। थोड़ा रूक जाओ। बीड़ी-सिगरेट पीते हो।
चाचा ने बीड़ी का बंडल निकाला और बीड़ी जलाई और मेरी ओर बंडल करते हुए बोले लो साहब... नहीं चाचा आप  पियो...
चाचा कहने लगे जिंदगी मिली है साहब तो जीनी ही पड़ेगी।
मैं... सिर हिलाते हुए हांजी का ईशारा किया।
थोड़ी देर में हम फिर वहां से चल दिए...
चाचा ने फिर कहा कि बेटा जिंदगी  उतरा चढ़ाव आते रहते हैं। हम तो बस चलते जाना है। चाचा के यह शब्द सुनकर में सोच में पड़ गया था कि चाचा ने कितनी बड़ी बात को कितनी सहजता के साथ कह दिया।
थोड़ी देर में हम बस स्टेंड पर पहुंच चुके थे मैंने चाचा को 50 रुपये निकाल कर दिए और चाचा का धन्यवाद किया। 

दुनिया में आपको ऐसे हजारों लोग मिल जाएंगे, जो इस तरह से जिंदगी जीते हैं। उनके जीवन का संघर्ष हमें भी निरंतर संघर्षशील रहने की प्रेरणा देता है।

एक चालक की जिंदगी क्या है। यही सिर्फ कि लोगों को उनकी मंजिल तक पहुंचाना है, पर खुद का पता नहीं हमारी जिंदगी का क्या ठिकाना है।।

उस चाचा जी का नाम नहीं पूछा पाया था और ना वो चाचा मुझे कभी दिखाई दिए हैं।
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