एनआरसी मामला : करीब दो करोड़ बांग्लादेशी हैं भारत में


14 जुलाई 2004 को तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने लोकसभा में बताया था कि देश में 1.20 करोड़ बांग्लादेशी रहते हैं। इनमें से 50 लाख असम में हैं और 57 लाख बंगाल में। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने 16 नवंबर 2016 भारत में रहने वाले बांग्लादेशी अप्रवासियों की तादाद दो करोड़ बताई थी। वहीं बंगाल के भाजपा नेता मोहित राय दावा करते हैं, 'बंगाल में कम से कम 80 लाख बांग्लादेशी रहते हैं। इनकी वजह से राज्य के युवकों को रोजगार नहीं मिल रहा है और वह दूसरे राज्यों का रुख कर रहे हैं।' उधर, अरुण जेटली ने ममता बनर्जी के उस बयान को ट्वीट भी किया। उन्होंने लिखा, '4 अगस्त 2005 को ममता बनर्जी ने लोकसभा में कहा था कि बंगाल में घुसपैठ आपदा बन गया है। मेरे पास बांग्लादेशी और भारतीय वोटर लिस्ट है। यह बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है। मैं यह जानना चाहती हूं कि आखिर सदन में कब इस पर चर्चा होगी?


25 मार्च, 1971 के पहले से रह रहे लोग ही भारतीय  

'असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के सोमवार को जारी दूसरे एवं अंतिम मसौदे के मुताबिक, असम में 40 लाख लोग अवैध तरीके से रह रहे हैं। दरअसल, नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें जिन लोगों के नाम नहीं होंगे उन्हें अवैध नागरिक माना जाएगा। एनआरसी में उन सभी भारतीय नागरिकों के नामों को शामिल किया जाएगा जो 25 मार्च, 1971 से पहले से असम में रह रहे हैं।

किन राज्यों में एनआरसी होता है लागू 

एनआरसी उन्हीं राज्यों में लागू होती है जहां अन्य देश के नागरिक भारत में आ जाते हैं। आमतौर पर यह उन्हीं राज्यों में लागू होता है जिन की सीमाएं अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगी होती हैं।

बंटवारे के बाद भी जारी रहा आना-जाना 

पश्चिम बंगाल में घुसपैठ का मुद्दा देश के विभाजन जितना ही पुराना है। राज्य की 2,216 किलोमीटर लंबी सीमा बांग्लादेश से लगी है। इसका लंबा हिस्सा जलमार्ग से जुड़ा होने और कई जगह सीमा खुली होने की वजह से देश के विभाजन के बाद से ही पड़ोसी देश से घुसपैठ का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह अब तक थमा नहीं है। 1947 में जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो कुछ लोग असम से पूर्वी पाकिस्तान चले गए। लेकिन, असम में भी जमीन होने के कारण लोगों का दोनों और से आना-जाना बंटवारे के बाद भी जारी रहा।

1979 में शुरू हुआ आंदोलन


तत्कालीन, पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश से असम में लोगों का अवैध तरीके से आने का सिलसिला जारी रहा। इससे वहां पहले से रह रहे लोगों को परेशानियां होने लगीं। असम में विदेशियों का मुद्दा तूल पकड़ने लगा। साल 1979 से 1985 के बीच छह साल तक असम में एक आंदोलन चला। तब यह सवाल उठा कि यह कैसे तय किया जाए कि कौन भारतीय नागरिक है और कौन विदेशी। 

असम समझौता

इसके बाद 15 अगस्त, 1985 को ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) और दूसरे संगठनों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का समझौता हुआ। इसे असम समझौते के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के तहत ही 25 मार्च, 1971 के बाद असम आए लोगों की पहचान की जानी थी। असम समझौते के बाद आंदोलन से जुड़े नेताओं ने असम गण परिषद नाम के राजनीतिक दल का गठन कर लिया जिसने राज्य में दो बार सरकार भी बनाई।

मनमोहन सिंह ने किया था अपडेशन का फैसला

2005 में तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह ने तय किया कि असम समझौते के तहत 25 मार्च, 1971 से पहले अवैध तरीके से दाखिल हो गए लोगों का नाम एनआरसी में जोड़ा जाएगा। विवाद के बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। इसके बाद साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में आइएएस अधिकारी प्रतीक हजेला को एनआरसी अपडेट करने का काम दे दिया गया। इधर, चुनाव आयोग ने नागरिकता संबंधी कागजात दिखा पाने में असमर्थ लोगों को डी- कैटेगरी में डाल दिया है। ‘डी’ यानी ‘संदेहास्पद’ वोटर्स की श्रेणी 1997 के चुनाव में असम में लाई गई थी।

एनआरसी के मुद्दे पर इतनी भड़की हुई क्यों हैं ममता बनर्जी


असम में एनआरसी का अंतिम मसौदा प्रकाशित होने के बाद बीते तीन दिनों के दौरान पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी के इन तीखे बयानों से साफ है कि उनमें भारी नाराज़गी है। ममता बनर्जी एनआरसी के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर हैं, लेकिन आखिर ऐसा क्यों है? राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ममता पर अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में इस मुद्दे ने उनको बांग्ला पहचान के लिए लड़ाई का चेहरा बनने का एक मौका दिया दिया है। इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठा कर ममता बंगाल में हिंदुओं के बीच अपनी पैठ और छवि को और मजबूत करना चाहती हैं। प्रदेश भाजपा का आरोप है कि ममता अपनी सरकार के दामन पर लगे दाग को धोने और राज्य की समस्याओं की ओर से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ही एनआरसी को लेकर इतनी मुखर हैं। पश्चिम बंगाल में भी घुसपैठ की समस्या देश के विभाजन जितनी ही पुरानी है। ऐसे में भाजपा के घुसपैठ को चुनावी मुद्दा बनाने से पहले एनआरसी के जरिए ममता इस लड़ाई को भाजपा के खेमे में ले जाने का प्रयास कर रही है।

  

क्या राजनीति कर रही हैं ममता?

ममता के खिलाफ अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के आरोप लगते रहे हैं। ममता एनआरसी के विरोध के जरिए ऐसे आलोचकों का भी यह कर मुंह बंद कर सकती हैं कि एनआरसी के सूची से बाहर रखे गए लोगों में सिर्फ अल्पसंख्यक ही बल्कि हिंदू और हिंदी भाषी भी हैं। ममता अगले लोकसभा और उसके दो साल बाद होने वाले चुनावों में एनआरसी के जरिए खासकर अल्पसंख्यकों और बंगाली हिंदुओं को यह कह कर भड़का सकती हैं कि भाजपा बंगाल में भी एनआरसी लागू करेगी। हालांकि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष पहले ही ऐसा एलान कर चुके हैं। भाजपा बांग्लादेश से लगे बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में खासकर सीमापार से आकर बसे हिंदुओं में धीरे-धीरे अपनी जमीन मजबूत करने का प्रयास कर रही है। असम में रोजी-रोटी और कारोबार के सिलसिले में बंगाल के 1.20 लाख लोग रहते हैं। इनमें से महज 15 हजार को ही एनआरसी में जगह मिल सकी है। ममता का सवाल है कि बंगाल के लोग कई पीढ़ियों से असम में रह कर नौकरी और कारोबार कर रहे हैं। अब एनआरसी में जगह नहीं मिलने के बाद उनका भविष्य क्या होगा? आखिर ऐसे लोग कहां जाएंगे? क्या उनको बांग्लादेश भेजा जाएगा और क्या बांग्लादेश उनको वापस लेने पर राजी होगा?

कोई टिप्पणी नहीं:

Powered By Blogger

गांव और शहर में बंटी सियासत, चम्बा में BJP को डैमेज कंट्रोल करना बना चुनौती

हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के नामों की घोषणा की बाद भाजपा में बगावत के सुर तेज हो गए हैं। ऐसा ही कुछ हाल चम्बा जिला के...