मीडिया : सवाल अस्तित्व का है

जिस तरह का दौर चल रहा है, उससे साफ है कि मीडिया अपनी भूमिका सही से नहीं निभा पा रहा। मीडिया जो सूचनाओं का माध्यम है आज पूरी तरह से बदल गया है। मीडिया अपने नाम के अर्थ को भी नहीं समझ पा रहा है कि आखिर इसका रोल क्या है?

आज हम मीडिया के युग में जी रहे हैं। एक ऐसा युग जिसमें घटना घटी नहीं कि सूचना आपके हाथ में है। ऐसा दौर जो तेजी से निकल रहा है। मीडिया संचार का माध्यम है। इसमें प्रिंट मीडिया यानी अखबार से लेकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया टीवी और अब अल्ट्रनेटिव मीडिया सभी शामिल हैं। पुराने समय में संचार का सबसे सशक्त माध्यम अखबार को माना जाता था। उसके बाद रेडियो आया और फिर टेलिविजन। उसके बाद 90वे के दशक में आए इंटरनेट के संचार के और माध्यम पैदा कर दिए। तकनीक  बढ़ने के साथ ही मीडिया जगत में क्रांति सी आ गई है। ऐसी क्रांति जो लगातार रफ्तार पकड़ रही है। चूंकि यह तकनीक का युग है तो सब कुछ फटाफट हो रहा है। और मीडिया जगत को भी इस तकनीक का इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ना पड़ा । अगर मीडिया जगत अपने आप को आधुनिक नहीं करता तो निश्चित तौर पर अपना अस्तित्व खो देता।

पुराने समय में मीडिया ने एक सचेतक की भूमिका निभाई है। पत्रकारों का भी विशेष रोल रहा है। जब भारत में पहली बार अखबार के रूप में मीडिया जगत की शुरूआत हुई तो उसे भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। उस वक्त में शासकों ने मीडिया पर अंकुश लगाने के कई प्रकार के कानून बनाए और लागू किए। कानून का उल्लंघन करने पर कई अखबारें बंद हो गईं और कई पत्रकार जेलों में बंद कर दिए गए। मीडिया पर अंकुश लगाने की शुरुआत इसके उत्थान से ही शुरू हो गई थी। मगर फिर भी मीडिया ने अपने आप को जिंदा रखा। जिंदा रखने में उस वक्त के पत्रकारों की अहम भूमिका रही।

आजादी से पूर्व भारत जब अंग्रेजों का गुलाम था, उस वक्त भी मीडिया ने अपनी अहम भूमिका निभाई। उस वक्त के पत्रकारों ने न सिर्फ समाजिक कुरीतियों के खिलाफ अभियान चलाए बल्कि उनमें सफल भी हुए। गणेश शंकर विद्यार्थी, महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, लाल लाजपत राय, पं जवाहर लाल नेहरू शुरुआत में पत्रकार ही रहे। आजादी से पूर्व इनका पत्रकार बनने का मूल उद्देश्य जनता का प्रतिनिधित्व करना था। आजादी के लिए भारत में छिड़े आंदोलन में इन पत्रकारों का विशेष योगदान रहा है। कई मीडिया संस्थान आजादी के वक्त तक भारत में पनप चुके थे। जब कांग्रेस का विभाजन गरम और नरम दल में हुआ तो मीडिया भी दोफाड़ हो गया। यानी मीडिया भी विभाजित हुआ। कई मीडिया संस्थान गरम दल का समर्थन करने लगे तो कई नरम दल का। विचारधारा में टकराव आया तो मीडिया में भी उसका असर देखने को मिला और अब आजादी के सात दशक गुजर जाने के बाद भी मीडिया की विचारधारा एक नहीं हो सकी है। एक वर्ग सत्ता लोलुप हो चुका है तो दूसरा धुर विरोधी। मीडिया संस्थान भी एक दूसरे को सरेआम नीचा दिखाते नजर आ रहे हैं।

जिस तरह का दौर चल रहा है, उससे साफ है कि मीडिया अपनी भूमिका सही से नहीं निभा पा रहा है। मीडिया जो सूचनाओं का माध्यम है आज पूरी तरह से बदल गया है। मीडिया अपने नाम के अर्थ को भी नहीं समझ पा रहा है कि आखिर इसका रोल क्या है।
मीडिया का रोल जनता का प्रतिनिधित्व करना है। मगर कर क्या रहा है, यह आज हर कोई भलिभांति समझ सकता है। मीडिया का एक वर्ग सत्ता का बखान करने से नहीं चूक रहा है तो एक वर्ग उसका कटाक्ष करने से। मीडिया की इस भूमिका से असल सूचना पूरी तरह से गायब हो गई है। लोगों को कोई भी सूचना सही से नहीं मिल पा रही है। एक अखबार खोलो तो सूचना कुछ है और दूसरा खोलो तो सूचना कुछ। अब जनता तय नहीं कर पा रही है कि आखिर सही सूचना है कौन सी। अब जनता असमंजस में है कि आखिर विश्वास करें तो किस पर। एक अखबार या टीवी कुछ बता रहा है तो दूसरा कुछ। मैं मानता हूं कि हर अखबार या टीवी न्यूज चैनल की अपनी भाषा और बर्तनी है। लिखने या पेश करने के तरीके अलग हैं। मगर सूचनाओं में इतना अंतर कैसे। यह सब तब हो रहा है, जब सत्ता या शासक वर्ग कुछ करने का बखान कर रहा है। किसी योजना का लोगों को मिले लाभ का आंकड़ा पेश किया जा रहा है। सत्ता समर्थक मीडिया हमेशा यही दिखा रहा है कि सरकार की आमुख योजना से इतने लोगों को लाभ मिल गया है और बाकि कितनों को दिया जा रहा है। इसके उल्ट जो सरकार का विरोधी है वह कुछ लोगों को पकड़ता है जो योजना का लाभ लेने का पात्र हो सकते हैं। उनसे बातचीत करेगा। पूछेगा कि योजना का लाभ मिला। अगर कहीं व्यक्ति ने इंकार कर दिया तो वह योजना को ही असफल बना देगा। वह यह नहीं दिखाएगा कि सरकार की इस योजना से कितने लोगों को लाभ मिला है और कितना को योजना का  लाभ अगले कुछ समय में मिलेगा। सत्ता समर्थक सिर्फ सरकार का बखान करने पर तुला है और विरोधी सरकार की नाकामियों और धज्जियां उड़ाने पर। दोनों ही स्थिति समाज के लिए खतरनाक हैं।

चूंकि मीडिया समाज के मानसिक पटल पर असर डालता है। यह बात सत्ता पक्ष भी जनता है और विपक्ष भी। इसका दोनों जमकर प्रयोग कर रहे हैं और मीडिया जगत अलग-अलग विचारधाराओं का तोता बनकर रह गया है। कुछ मीडिया संस्थान अपने आप को आजाद बता रहे हैं, लेकिन इनको चलाने वाले वहीं हैं, जो पूर्व में किसी के खास समर्थक रहे हैं। जब मीडिया में इनकी बाट लग गई और निकाले गए तो अपने अस्तित्व की तलाश में यहां-वहां भटके और अंत में अल्ट्रनेटिव मीडिया यानी वेब मीडिया का सहारे हो लिए। मैंने बीते कुछ दिनों में इतने सारे वेब मीडिया के पोर्टल और वेबसाइट और यू-ट्यूव चैनल देखे जो हाल ही में शुरू हुए प्रतीत होते हैं। मगर अपने आपको 10 साल पुराना और 12 साल पुराना बता रहे हैं। किस नए तरीके के संचार माध्यम की शुरुआत करना बुरी बात नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी है तो इसका प्रयोग भी करना चाहिए। और खुले दिल से करना चाहिए, लेकिन कुछ सिद्धांतों की पालना भी जरूरी है।

मैं मानता हूं कि मीडिया को सत्ता विरोधी होना चाहिए, इससे देश के विकास को बल मिलेगा। लोगों में विश्वनीयता बढ़ेगी। लेकिन सत्ता विरोधी होने का मतलब यह कतई नहीं है कि आप देश की साख की ही बाट लगा दें। किसी भी मीडिया संस्थान को देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता व एकता को ध्यान में रखना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों के दौरान जो कुछ हुआ है, उसने देश में मीडिया की विश्वनीयता पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। लोगों को मीडिया की सूचनाओं पर भी विश्वास नहीं हो रहा है। लोग मीडिया से जुड़े लोगों को भी संदेह भरी नजरों से देखते हैं। और तो और मीडिया पर गोदी मीडिया और दलाल जैसा शब्दों से भी संबोधित किया जा रहा है। कुल मिलाकर देखा जाए तो स्थिति चिंताजनक है।

अगर मीडिया संस्थान चाहते हैं कि वह अपनी विश्वसनीयता को दोबारा से लोगों में बहाल करें तो इसके लिए बड़े स्तर पर बदलाव की आवश्यकता है। सभी मीडिया संस्थानों और पत्रकारों को अपने काम करने के तरीके बदलने होंगे। मीडिया को सचेतक औऱ जनता का प्रतिनिधि बनना होगा। सरकार की सफलता और असफलता दोनों को एक साथ दिखना होगा। सरकारों के कामकाज को जनता के बीच लाना होगा। मीडिया को किसी एक पक्ष नहीं बल्कि समग्र सूचना जनता तक पहुंचानी होगी। अगर कोई सरकार अच्छा काम करती है तो उसको प्रोत्साहित करना होगा और बुरा करती है तो उसका कटाक्ष करते हुए अपने सुझाव भी देने होंगे। पत्रकार साथियों को अपनी विचाराधारा को अलग रखकर पत्रकारिता करनी होगा। जब मीडिया इस तरह से का करेगा तो निश्चित तौर पर जनता में अपना विश्वास स्थापित करेगा। अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब मीडिया के प्रति जनता के मन में कोई लगाव नहीं रहेगा। अगर लगाव ही नहीं रहा तो अस्तित्व तो अपने आप ही खत्म हो जाएगा। कई लोगों  ने तो अभी भी न्यूज चैनलों को देखना ही बंद कर दिया है। लोगों का इस तरह मीडिया से मोहभंग होना कोई छोटी बात नहीं है। यह मीडिया के अस्तित्व का सवाल है।

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