लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाम परिवारवाद

भारतीय राजनीति में परिवारवाद लंबे समय से हावी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को इसने खोखला बनाने का काम किया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार चलाने के लिए जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है। मगर एक ही परिवार के लोग एक क्षेत्र से लेकर देश तक को संभालने की लालसा रखें, तो यह लोकतंत्र नहीं बल्कि वही पुराने जमाने की राजवाड़ाशाही वाली व्यवस्था प्रतीत होती है। राजवाड़ाशाही में पहले बाप गद्दी पर बैठेगा फिर बेटा। अगर उनकी न चली तो फिर बहुओं और बेटियों को आगे लाओ। मतलब की दूसरे काबिल लोग हैं ही नहीं जो क्षेत्र अथवा देश की कमान संभाल सकें। लोकतांत्रिक व्यवस्था है तो उसे परिवारवादी व्यवस्था नहीं बनाया जाना चाहिए। अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था को परिवारवादी व्यवस्था में बदला जा रहा है तो इसमें हम सब मतदाताओं का भी दोष है। आखिर हम क्यों किसी एक ही परिवार को बार-बार आगे करते रहें। भारतीय राजनीति में सैकड़ों ऐसे परिवार हैं, जिनका पेश ही सिर्फ राजनीति करना है। उनका राजनीतिक प्रोफेशनल भी कहा जा सकता है।
सबसे पहले देश की राजनीति में परिवार की मिसाल पर नेहरू परिवार ही आता है। जब से देश आजाद हुआ है, तब इस परिवार के सदस्य राजनीति में ही हैं। चाहे पंडित जवाहर लाल नेहरू हो, उनकी बेटी इंदिरा गांधी हो। नेहरू के राजनीति में आने के बाद पीढ़ी दर पीढ़ी परिवार राजनीति में ही है। इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी, संजय गांधी, फिर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और फिर प्रियंका गांधी। जम्मू कश्मीर में भी कुछ ऐसे नेता हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी राजनीति में हैं, जिसमें अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार प्रमुख हैं। पहले शेख अब्दुल्ला, फारूख अब्दुल्ला और उमर अब्दुला। अब्दुल्ला परिवार की तीसरी पीढ़ी भी राजनीति में है। मुफ्ती मोहम्मद सईद के बाद अब महबूबा मुफ्ती भी राजनीति में हैं। हिमाचल, पंजाब के साथ देश के कई राज्यों के राजनीति परिवार ऐसे हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी सियासत कर रहे हैं।

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