खुद्दारी पर राजनीति भारी


खुद्दारी या आत्मसम्मान वह पूंजी है जिसे कोई भी व्यक्ति शायद किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहता है। अपनी खुद्दारी पर हर व्यक्ति नाज करता रहा है। कई बार उसे जताने और बताने में भी झिझक महसूस नहीं करता। अपने वुजूद की अहमियत को समझने वाला और अपने आप का सम्मान करने वाले व्यक्ति की अपनी ही पहचान होती है। उसे अपने बजूद को लेकर चर्चाएं नहीं चाहिए। खुद्दार व्यक्ति सब कुछ बर्दाश्त कर लेता है लेकिन अपनी खुद्दारी पर लगने वाली हल्की-सी चोट से उसे तिलमिला देती है। खुद्दारी पर शायर फानी बदायुनी ने कहा है... 
'दुनिया मेरी बला जाने, महँगी है या सस्ती है
मौत मिले तो मुफ़्त न लूँ हस्ती की क्या हस्ती है'

शायद यह दो लाइन में कही गई बात एक खुद्दार बंदे के लिए काफी है। खुद्दार कभी अपनी कमजोरियों और लाचारियों का ढिंढोरा नहीं पीटता है। किस भी हालात में हो, उसे उसका सामना करना है। कैसे करना है? पता नहीं बस करना है। अगर आप भी खुद्दार हो तो आपको भी पता होगा, कि खुद्दारी को जिंदा रखने के लिए क्या करना है। खैर विषय को ज्यादा नहीं भटकाना चाहता हूँ, इसलिए सीधे प्वाइंट पर आ जाता हूँ। जब आपकी खुद्दारी की बात आती है तो आप अपनी खुद्दारी का ढिंढोरा तो नहीं पिटवाओगे? नहीं न। तो हर कोई खुद्दार व्यक्ति यही सोचता है। आजकल हिमाचल में सरकार की नाकामियां कहें या फिर यूं कहें कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए गरीब लोगों की खुद्दारी पर खूब सियासत की जा रही है। सियासत इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जो बंदा यह काम कर रहा है, वो पॉलिटिकल पार्टी से जुड़ा हुआ है। हिमाचल के सैकड़ों गांवों में जा चुका है। वहां के गरीब परिवारों से मिल रहा है। उनकी आर्थिक स्थिति क्या है, इस पर फेसबुक पर लंबे-लंबे आर्टिकल लिख रहा है। परिवार की आर्थिक सामाजिक और जिस प्रकार से सहानुभूति दिखाकर संबंधित परिवार से जानकारी मिल सकती है, उसको पब्लिक प्लेटफार्म पर शेयर कर रहा है। हजारों लोग उसे शेयर कर रहे हैं। उसकी एक अपील पर कई लोग संबंधित परिवार की मदद कर रहे हैं, जितनी हो सकती है। कहने को तो यह समाज के उस दबे कुचले व्यक्ति के उत्थान के लिए अच्छी पहल है, लेकिन जिस परिवार की दशा का सार्वजनिक प्लेटफार्म पर जिक्र किया जा रहा है, उसकी ईज्जत का क्या? जो लोग उस परिवार की स्थिति के बारे में नहीं जानते थे, उनमें तो उस परिवार के झंडे झुला दिए ना। यानी परिवार की निजी जिंदगी को दुनिया में लाकर रख दिया ना। कहने को यह समाजसेवी है और इस समाज सेवा के पीछे का मकसद क्या है, हर कोई जानता है। मैं किसी को गलत नहीं ठहरा रहा हूँ, लेकिन जो हो रहा है गलत हो रहा है। गरीब लोगों की आड़ में भविष्य की राजनीतिक पृष्टभूमि तैयार करना उचित नहीं है। किसी परिवार की माली हालत को दुनिया में लाकर उसकी लाचारी पर सियासत करना उचित नहीं है।  

खुद्दार पर एक लघुकथा भी साथ  

एक रिक्शा चालक का बेटा रविवार के दिन घर फोन करता है "पिताजी आप ठीक तो हो ना? पैसो की कमी मत देखना,अब मैं बहुत पैसा कमाने लगा हूँ।" पर उसे क्या पता उसका बाप जब से वो छोटा था तभी से रिक्शा ही उसका कमाऊं पूत था और आज भी उसी से रोजी रोटी चलाता है। खुद्दार पिता मन ही मन सोचता है "पैसा वो भेजता है हाथ भी न लगाता हूँ,और क्यों लगाऊँ। बुढ़ापे में इतना खुद्दार जो हो गया हूँ। उसको पैसे कमाने लायक बनाना मेरा फर्ज था, मेरी जिम्मेदारी लेना उसकी कोई मजबूरी हो ये मैं नही समझता।" बस यही सोच कर रोज वह सर्दी हो, गर्मी हो, बारिश हो या तूफान यानी कुछ भी हो ये रिक्शा चलाना उसकी खुद्दारी है। अब भी जब हर रविवार के दिन बेटे का फोन आता है तो पिताजी  उसे फोन पर ही आश्वस्त कर देते हैं कि तेरे दिए पैसों से मेरी जिंदगी आराम से चल रही है, लेकिन फिर भी रोजाना अपने काम में लग जाते हैं।
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