सोशल मीडिया नहीं सोच सुधारनी होगी

सरकार पब्लिक प्लैटफार्म को सुधारने की बात कर रही है, लेकिन लोगों को अपनी सोच को सुधारने की बात ही नहीं कर रही है। जब हम लोग अपनी सोच को सुधार लेंगे, सोशल मीडिया स्वतः ही सुधर जाएगा। सोशल मीडिया को सुधारने के बजाय हमें अपनी सोच को सुधारना होगा। तभी लोगों में नफरत फैलाने वाली, अफवाह फैलाने वाली, भड़काऊ संदेशों के सोशल मीडिया पर होने वाले प्रचार-प्रसार पर रोक लग सकती है।
सोशल मीडिया ऑपरेटरों अपने-अपने ढंग से सफाई देनी शुरू कर दी है। ट्विटर ने उन अकाउंट्स को बंद करना शुरू कर दिया है, जो उसके हिसाब से फर्जी हैं। वाट्सएप ने नए अपडेट के साथ ऐसी व्यवस्था की है कि अब अगर कोई संदेश फॉरवर्ड होगा, तो पता लग जाएगा कि यह मूल रूप से तैयार किया हुआ नहीं, बल्कि इधर का माल उधर वाला संदेश है। हालांकि इसका कोई बड़ा नतीजा निकलेगा, इसकी उम्मीद कम है। फर्जी खबरें बंद हो जाएंगी, यह यकीन नहीं है। ट्विटर पर लोगों को धकियाने, गरियाने या बेइज्जत करने का सिलसिला अभी नहीं रुका है। वाट्सएप पर अभी भी नफरत के किस्से गढ़ने वाले और हिंसक माहौल बनाने वाली चिंगारियां छोड़ी जा रही हैं। हालांकि यह भी जरूरी काम था और दोनों इसे दबाव आने से पहले ही कर देते, तो शायद ज्यादा अच्छा होता।
ट्विटर, वाट्सएप या उन सभी मोबाइल एप और वेबसाइट ने क्या किया, जिन्हें हम सोशल मीडिया कहते हैं? उन्होंने हमें इस भागदौड़ वाली जिंदगी में आपसी संपर्क के मंच दिए। वह स्थान दिया, जहां हम अपने दोस्तों, रिश्तेदारों या अपने जैसे विचार वालों से संवाद कर सकें। संवाद से हमारी धारणा यह है कि बात करने से नजदीकियां बढ़ती हैं और गलतफहमियां दूर होती हैं। शायद एक-दूसरे से आमने-सामने बात करने के मामले में यह धारणा सही भी है। इंटरनेट के सोशल मीडिया ने हमारी इस धारणा की सीमा भी बता दी है। जहां बात आमने-सामने न हो और छद्म नाम के पीछे छिपने की सुविधा भी हो, वहां संवाद गलतफहमियां दूर तो पता नहीं कितनी कर सकता है, लेकिन उसे पैदा करने और फैलाने में बहुत कुशल साबित होता है। ऐसा करते हुए हम तीसरे के बारे में गलतफहमी के शिकार हो सकते हैं और बाद में उसे चौथे या पांचवें तक पहुंचा सकते हैं। इसी तरह अफवाहों के बारे में सोचें, तो वे कोई नई चीज नहीं हैं, वे उस जमाने में भी थीं, जब कोई ऐसी तकनीक नहीं थी। तब भी उनकी वजह से दंगे होते थे। इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया ने वही काम किया है कि उसने संवाद का एक तेज माध्यम दिया, जिससे गलतफहमियां और अफवाहें बड़ी तेजी से बनती-बिगड़ती और फैलती हैं। नफरत पहले भी प्यार पर हावी रहती थी। इसमें वे लोग भी हैं, जिनकी दुकान या राजनीति इसी नफरत से चलती है, वे अब अपने काम को ज्यादा कुशलता से अंजाम दे लेते हैं। 
सोशल मीडिया से जुड़ी जो भी खबरें इन दिनों हमें मिल रही हैं, वे मोटे तौर पर सोशल मीडिया की नहीं, हमारे खुद के सामाजिक खोट की तरफ इशारा करती हैं। चाहे वह राजनेताओं से ट्विटर पर दुर्व्यवहार का मामला हो या फिर बच्चे चुराने या गोहत्या की अफवाहें फैलाकर किसी को भीड़ द्वारा मार दिए जाने का मामला हो। इनके पीछे की प्रवृत्तियां मोबाइल के किसी एप से नहीं निकलीं, बल्कि यह हमारे जनमानस के कोनों में बैठी कुंठाओं का अचानक उबल पड़ना है। हमारी ये समस्याएं मूल रूप से या तो सामाजिक हैं या राजनीतिक, हमारी दिक्कत यह है कि हम इनका तकनीकी समाधान निकालना चाहते हैं, जो शायद संभव नहीं है। तकनीक से कुछ चीजों को कुछ हद तक रोका जा सकता है, निगरानी तंत्र भी विकसित किए जा सकते हैं, लेकिन इन प्रवृत्तियों को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सकता। इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम पूरी तरह असहाय हैं, समस्या यह है कि हम समाधान तकनीक से मांग रहे हैं, समाज और राजनीति से नहीं मांग रहे। 
सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार पब्लिक प्लैटफार्म को सुधारने की बात कर रही है, लेकिन लोगों को अपनी सोच को सुधारने की बात ही नहीं कर रही है। जब हम लोग अपनी सोच को सुधार लेंगे, सोशल मीडिया स्वतः ही सुधर जाएगा। सोशल मीडिया को सुधारने के बजाय हमें अपनी सोच को सुधारना होगा। तभी लोगों में नफरत फैलाने वाले, अफवाह फैलाने वाले, भड़काऊ संदेशों के सोशल मीडिया पर होने वाले प्रचार-प्रसार पर रोक लग सकती है।

इस्लामिक आतंकवाद क्या है

Bangladesh faces less Islamic terrorism.. PHOTO.. Google
जहां भी जब भी कोई हमला हो तो सबसे पहले वहां पर इस्लामिक आतंकवाद की बात आती है। यानी कि जिन्होंने भी हमला किया वो इस्लाम को मानने वाले थे। बेशक इसको मुस्लिम संगठन नकारते रहते हों, लेकिन असल में यह इस्लामिक आतंकवाद ही है। विभिन्न आतंकी हमलों में शामिल दहशतगर्द इसके सबूत हैं, कि यह इस्लामिक आतंकवाद ही है। अब इसको समझने की आवश्यकता है कि आखिर क्यों इन दहशतगर्दों को इस्लामिक आंतकी कहा जाता है। 
आपने कई सारे आतंकी हमलों के वीडियो देखें हों। कई सारे फोटो देखें होंगे। और कहीं न कहीं आपको भी लगा होगा कि यह इस्लामिक आतंकवाद ही है, लेकिन उसको आप तय कैसे करें कि नहीं यह सही में इस्लामिक आतंकवाद ही है। तो चलिए बात करते हैं इस्लामिक आतंकवाद पर। जो भी आपने वीडियो, फोटो और सोशल मीडिया पर पोस्ट देखी होंगी। उसमें आतंकी खास तरह की वेशभूषा में होगा। हाथ में हथियार होंगे। बैग भी गोलियों, बम और कई अन्य विस्फोटकों से भरा हुआ होगा। आपके दिल में भय पैदा कर देगा, यह जो मंजर होगा। जब भी वीडियो आप देखेंगे उसमें जब भी दहशतगर्द हमला करेगा तो साथ में एक नारा भी गूंजेगा, अल्लाह हू अकबर।
कई सारे वीडियो में ऐसे भी आतंकी देखे जा सकते हैं, जिनके हाथ में मौजूद बैनरों पर कुरान शरीफ की आयतें लिखी होंगी। तो फिर कैसे न इसे इस्लामिक आतंकवाद कहा जाए। अगर मान भी लिया जाए कि वह इस्लामिक आतंकवाद नहीं है तो फिर मुझे यह बता दीजिए कि कब किस मुस्लिम ने इसका विरोध किया कि आतंकी संगठन कुरान शरीफ की आयतों वाले बैनरों का प्रयोग न करें। इससे इस्लाम की बदनामी होती है। शायद ऐसा आपने कभी नहीं सुना होगा। यह उन मुस्लिमों की मानसिकता और सोच पर सवाल है कि जब वह कहते हैं कि इस्लामिक आतंकवाद नहीं है तो फिर आप इसका विरोध क्यों नहीं करते हो। पूरे विश्व में अभी तक जितने भी बड़े आतंकी हमले हुए हैं, वहां पर अल्लाह हूं के नारे क्यों लगे।  क्यों इन सभी मुस्लिम फिर एकजुट होकर ऐसे धर्म को बदनाम करने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हैं। क्यों नहीं उनके खिलाफ आवाज उठाते हैं। मैं मुस्लिम धर्म को बदनाम नहीं कर रहा हूं लेकिन, यह सवाल हैं मुस्लिम धर्म को मानने वाले लोगों से कि आखिर वह अपने धर्म को बदनाम होने से बचाने के लिए क्यों नहीं आवाज उठाते हैं। अगर सच में वह इस्लाम को मानते हैं तो वह आवाज क्यों नहीं उठाते हैं कि ऐसे लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए। आवाज न उठाना भी कहीं न कहीं इस्लामिक आतंकवाद को बढ़ावा देने जैसा है। 
अगर सभी मुस्लिम चाहते हैं कि दुनिया से ऐसे दहशतगर्दों को मिटाया जाए तो उनको आवाज उठानी होगी। उनको एकजुट होकर आह्वान करना होगा कि इस्लाम को बदनाम करने वालों को किसी भी सूरत में बख्शा नहीं जाए और उनपर कार्रवाई हो। अगर सही में ऐसा होता है तो माना जा सकता है कि इस्लामिक आतंकवाद नहीं है। वरना मुस्लिमों भाइयों की चुप भी संदेहास्पद है, कि आखिर वह भी अपने धर्म को बदनाम होने से बचाने के लिए कोई कार्य नहीं कर रहे हैं और इस्लामिक आतंकवाद को बढ़ावा देना में साथ दे रहे हैं।

धरती की पुकार

जैव विविधता भूल तुम निकले हो आगे
तरक्की के लिए तबाह करे कई जंगल
कुछ वर्षों में तुम सांस भी न ले सकोगे
क्यों प्रकृति से कर रहे हो तुम अमंगल 
ये मावन नाश का है इकट्ठा होता काल
यह प्रकृति का विनाश नहीं है सुन लो
हे मनु मेरे संरक्षण को कदम उठाओ
या बेमौत मौत का रास्ता ही चुन लो
बड़े-बड़े कंक्रीट के महल बनाए तुमने
अंधधुंध कटान कर  पेड़ गिराए तुमने
दर्द मेरा ना जाना आजतक किसी ने
गुल में खिजां के फूल महकाए हैं तुमने
क्यों लुप्त हो रही है मेरी वो हरियाली
क्यों मेरे खून की नदियां हो रही काली
ये मनु बेटा सब तेरा ही किया धरा है
तूने पहले ही भविष्य की मौत बुला ली
मैं तो तेरा हर बोझ रोज सह रही हूं
सुधार जा, आपदा लाकर कह रही हूं
अब तो ये दर्द मुझसे भी न सहा जाता
देखना अपनों को ही कर तबाह रही हूं 
अभी भी वक्त है थोड़ा तो संभल जा
मेरी कही बातों पर थोड़ा अमल ला
बेटा, मैं तुझे संरक्षण दूंगी जिंदगी भर
मेरी रक्षा के लिए तू कुछ काम तो कर 

आतंक का कोई धर्म नहीं तो रमजान के महीने में दया की दृष्टी क्यों ?

जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने नौ मई को ऑल पार्टी मीटिंग के बाद केंद्र सरकार से रमजान के पाक महीने में आतंकियों के खिलाफ एकतरफा सीजफायर करने की अपील की है यानी आतंकी चाहे तो इस माह एकत्रित होकर भारत के खिलाफ को भी बड़ा षड्यंत्र रच लें, लेकिन भारत सरकार अथवा भारतीय सेना आतंकियों के खिलाफ कोई कार्रवाई न की जाए, ऐसा क्यों? यह सवाल मेरे मन को कचोट रहा है। एक ओर कहते हैं कि आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता तो फिर आतंकियों के प्रति रमजान के महीने में हमदर्दी क्यों? क्यों आखिर राज्य सरकार इसको लेकर रेजूल्यूशन ला रही है कि इस माह कोई सीजफायर नहीं किया जाना चाहिए? आखिर अब तक दुनिया में जितने भी आतंकी हमले हुए हैं, उसमें एक धर्म विशेष के आतंकी ही क्यों शामिल रहते हैं। और इन आतंकियों के लिए रमजान के महीने का क्या महत्व।आतंकी तो आतंकी है और उसके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कोई भी वक्त तय करना उचित नहीं है कि आमुक वक्त के बाद ही आतंक के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। आतंकियों को तो जब भी देखा जाए, उस वक्त ही उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। अब सवाल यह है कि अगर आतंकियों के खिलाफ रमजान के माह में कोई कार्रवाई नहीं की जाती है और उनको एक माह के लिए बख्श दिया जाता है तो इसका मतबल है कि हम भारत के लिए कोई और बड़ा खतरा पैदा होने देंगे। ऐसा खतरा जो जम्मू-कश्मीर के हालात को और बिगाड़ सकता है क्योंकि कश्मीर के हालात पहले ही खराब हैं, ऐसे में अगर सीजफायर नहीं किया जाता है तो इसका कोई बड़ा खामियाजा भुगतने के लिए कश्मीर घाटी और देश को तैयार रहना होगा। अगर केंद्र और जम्मू कश्मीर की सरकारें चाहती हैं तो रमजान के माह में भी आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई जारी रखनी होगी।

एक नजर दुनिया भर के आठ बड़े हमलों पर नजर

अब तक दुनिया में आठ बड़े आतंकि हमले हुए हैं जिनमें 4000 से अधिक निर्दोष लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 15000 के करीब लोग घायल हुए हैं। चलिए एक नजर डालते हैं अब तक हुए बड़े आतंकी हमलों पर...

मुंबई में 26/11 हमला

26 नवम्बर 2008 को भारतीय इतिहास में एक काले दिन के रूप में याद किया जाता है। इस दिन मुंबई में एक साथ कई जगह आतंकवादी हमले हुए थे। भारतीय इतिहास में इस हमले को सबसे उग्र हमला माना जाता है। आतंकियों ने ताज होटल, ओबरॉय होटल, नरीमन हाऊस, कामा अस्पताल और सीएसटी समेत कई जगह एक साथ हमला किया था। आतंकियों और सुरक्षाबलों के बीच 60 घंटे से भी ज्यादा समय तक मुठभेड़ चलती रही। इसमें 160 से भी ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई।

अमेरिका में 9/11 हमला

9/11 हमला विश्व इतिहास का सबसे उग्र, बड़ा और भंयकर आतंकवादी हमला माना जाता है। इसमें लगभग 3000 लोग मारे गए और 8900 लोग घायल हो गए थे। 11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर अलकायदा द्वारा आत्मघाती हमला किया गया। अलकायदा के आतंकवादियों ने चार यात्री जेट वायुयानों का अपहरण कर लिया। अपहरणकर्ताओं ने जानबूझकर उनमें से दो विमानों को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर, न्यूयॉर्क शहर के ट्विन टावर्स के साथ टकरा दिया, जिससे विमानों पर सवार सभी लोग तथा भवनों के अंदर काम करने वाले अन्य अनेक लोग भी मारे गए। अपहरणकर्ताओं ने तीसरे विमान को वाशिंगटन डीसी के बाहर, आर्लिंगटन, वर्जीनिया में पेंटागन में टकरा दिया, अपहरणकर्ताओं द्वारा वाशिंगटन डीसी की ओर अपहरण किए गए चौथे विमान को कुछ यात्रियों एवं उड़ान चालक दल द्वारा विमान का नियंत्रण फिर से लेने के प्रयास के बाद विमान ग्रामीण पेंसिल्वेनिया में शैंक्सविले के पास एक खेत में जा टकराया, किसी भी उड़ान से कोई भी जीवित नहीं बचा।

पेशावर में स्कूल पर हमला

पाकिस्तान के पेशावर शहर में एक सैनिक स्कूल में तालिबान के हमले में 132 बच्चों समेत 140 से ज़्यादा लोग मारे गए थे। तालिबानी आतंकवादियों ने स्कूल की चारदीवारी से अंदर घुसकर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाई थीं। अपनी जान बचाने में कामयाब छात्रों ने इस दर्दनाक हमले का मंजर बयां करते हुए कहा था कि आतंकवादी एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाकर बच्चों को गोलियां मारते रहे। बच्चों को निशाना बनाने की इस घटना की दुनियाभर में निंदा हुई थी।

पेरिस में सिलसिलेवार आतंकी हमले

फ्रांस की राजधानी पेरिस में 14 नवंबर 2015 को नेशनल स्टेडियम के बाहर एक रेस्टोरेंट और कॉन्सर्ट हॉल में हुई गोलीबारी और धमाकों में 120 से ज्यादा लोग मारे गए। हथियारों से लैस आतंकियों ने 100 से ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिया, जो बैटाक्लां म्यूजिक हॉल में रॉक कॉन्सर्ट देखने गए थे। यह धमाका उस वक्त हुआ जब फ्रांस और जर्मनी के बीच नेशनल स्टेडियम में फुटबॉल मैच चल रहा था। आतंकी एके-47 और कुछ बम के साथ पहुंचे थे। इस हमलें में फ्रांस के सुरक्षाबलों ने जवाबी कारवाई में 8 आतंकियों को मार गिराया था। आतंकी संगठन आईएस ने इस हमले की जिम्मेदारी ली थी।

11 जुलाई 2006 में मुंबई में ट्रेन बम ब्लास्ट

आतंकियों ने मांटुगा रोड, माहिम, बांद्रा, खोर रोड, जोगेश्वरी, बोरिवली समेत कई जगहों पर मुंबई की लोकल ट्रेनों में धमाके किए। बमों को प्रेशर कुकरों में रखा गया था। इन हमलों में 200 से ज्यादा लोग मारे गए थे और लगभग 700 घायल हुए थे।

मॉस्को के थिएटर में हमला

23 अक्टूबर 2002 को मॉस्को में डुबरोवका थियेटर में हथियार बंद आतंकवादियों ने करीब 850 लोगो को बंधक बना लिया था। इस आतंकी हमले में करीब 130 लोग मारे गए थे और 700 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। हमले में 40 आतंकी भी ढेर हो गए थे।

सितंबर 2004 बेसलैन स्कूल हमला

रूस के बेसलैन स्कूल में हुए इस हमले को चेचेन आतंकियों ने अंजाम दिया था। इस हमले को आतंकियों द्वारा स्कूली बच्चों को निशाना बनाए जाने वाले हमलों में सबसे बड़े और क्रूर हमले के तौर पर जाना जाता है। उन्होंने 3 दिन तक स्कूल में बच्चों समेत 1100 बंधक बनाए रखा, अंत में स्कूल में मिलिट्री ऑपरेशन को अंजाम दिया गया, जिसमें आतंकियों समेत 385 लोगों की मौत हो गई और 783 लोग घायल हो गए थे।

अफगानिस्तान में आतंकी हमला

अफगानिस्तान में आतंकी हमला 23 नवंबर, 2014 को तालिबान के आत्मघाती हमलावर ने अफगानिस्तान में वॉलीबॉल मैच देख रहे 60 से अधिक लोगों को मार डाला था।

इन्सानियत पर सवाल खड़ा करता है कठुआ में हुआ आठ वर्षीय बच्ची का दुष्कर्म और हत्या कांड

इस साल की शुरुआत में जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले के रसाना गांव में एक घटना होती है। आठ साल की एक बच्ची के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया जाता है और फिर उसकी जघन्य तरीके से हत्या कर दी जाती है। बात सिर्फ यहीं ख़त्म नहीं होती है। इस मामले को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं पुलिस, राजनेताओं, कुछ संगठनों और वकीलों की ओर से दी जा रही हैं वह संवेदनहीनता के नए प्रतिमान स्थापित करती हैं। इस जघन्य हत्याकांड के घटनाक्रम की शुरुआत 10 जनवरी को होती है। इस दिन कठुआ ज़िले की हीरानगर तहसील के रसाना गांव की एक लड़की गायब हो जाती है। यह लड़की बकरवाल समुदाय की थी जो एक ख़ानाबदोश समुदाय है। इसका ताल्लुक मुस्लिम धर्म से है। परिवार के मुताबिक यह बच्ची 10 जनवरी को दोपहर क़रीब 12:30 बजे घर से घोड़ों को चराने के लिए निकली थी और उसके बाद वो घर वापस नहीं लौट पाई। घरवालों ने 11 जनवरी को हीरानगर पुलिस से लड़की के ग़ायब होने की शिकायत दर्ज करवाई तो पुलिस ने लड़की को खोजने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। फिर क़रीब एक सप्ताह बाद 17 जनवरी को जंगल में उस मासूम की लाश मिलती है। मेडिकल रिपोर्ट में पता चला कि लड़की के साथ कई बार कई दिनों तक सामूहिक दुष्कर्म (करीब तीन माह बाद जारी की गई पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार) हुआ है और पत्थरों से मारकर उसकी हत्या की गई है।

प्रदर्शन, जांच और अधिकारियों का निलंबन

बच्ची की लाश मिलने के बाद परिजनों ने इलाके में प्रदर्शन किया और आरोपियों को गिरफ़्तार करने की मांग की। बदले में उन्हें पुलिस की लाठियां खानी पड़ी थी। इसके बाद पूरे जम्मू कश्मीर में हंगामा हो गया। लोग हज़ारों की संख्या में सड़क पर निकलकर प्रदर्शन करने लगे, जो अभी भी जारी है। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में भी बच्ची की हत्या और बलात्कार की गूंज कई दिनों तक सुनाई देती रही। विपक्ष के हंगामे के बाद सरकार ने सदन में बताया कि इस सिलसिले में पंद्रह साल के एक किशोर को गिरफ़्तार किया गया है। सदन में सरकार के बयान और पंद्रह वर्ष के किशोर की गिरफ़्तारी के दावे के बावजूद असल गुनहगार की गिरफ़्तारी का मामला ज़ोर पकड़ता गया। 20 जनवरी को सरकार की ओर से थाने के एसएचओ को सस्पेंड कर दिया गया और मामले की मजिस्ट्रेट जांच के आदेश दिए गए। फिर भी हंगामा नहीं थमा। इसके बाद जम्मू कश्मीर की महबूबा मुफ़्ती सरकार ने 23 जनवरी को मामले को राज्य पुलिस की अपराध शाखा को सौंप दिया था, जिसने विशेष जांच दल का गठन किया और मामले की जांच शुरू हो गई। जांच के दौरान अपराध शाखा ने इस पूरे मामले के जांच अधिकारी रहे सब इंस्पेक्टर आनंद दत्ता को गिरफ़्तार कर लिया। जांच आगे बढ़ी तो पता चला कि इस सामूहिक दुष्कर्म मामले में जम्मू कश्मीर का एक स्पेशल पुलिस अधिकारी दीपक खजुरिया भी शामिल है। 10 फरवरी को अपराध शाखा ने दीपक खजुरिया को भी गिरफ़्तार किया। धीरे-धीरे इस मामले में पुलिस ने कुल सात लोगों को गिरफ़्तार किया, जिनमें से एक के नाबालिग होने की बात कही गई। हालांकि बाद में अपराध शाखा के अधिकारियों के मुताबिक मेडिकल परीक्षण से यह पता चला कि जिस आरोपी को किशोर समझा गया था वह 19 साल का है।

मुख्य आरोपी का सरेंडर करना

इस पूरी वारदात के मुख्य आरोपी ने ख़ुद ही सरेंडर कर दिया। गिरफ़्तार किए जाने वालों में स्पेशल पुलिस आफिसर (एसपीओ) दीपक खजुरिया, पुलिस ऑफिसर सुरेंद्र कुमार, रसाना गांव का परवेश कुमार, असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर आनंद दत्ता, हेड कॉन्स्टेबल तिलक राज, पूर्व राजस्व अधिकारी का बेटा विशाल और उसका चचेरा भाई, जिसे नाबालिग बताया गया था, हैं। इस मामले में पूर्व राजस्व अधिकारी सांझी राम का नाम मुख्य आरोपी के तौर पर सामने आया है, जिसके बाद उसके ख़िलाफ़ ग़ैर ज़मानती वॉरंट जारी कर दिया गया। जब पुलिस ने उसके बेटे विशाल को गिरफ़्तार कर लिया तो सांझी राम ने भी आत्मसर्मपण कर दिया। इस मामले में संवेदनहीनता का एक बड़ा नमूना तब सामने आया जब 10 फरवरी को दीपक खजुरिया की गिरफ़्तारी के ठीक सात दिन बाद कठुआ में हिदू एकता मंच ने उनके समर्थन में रैली का आयोजन किया। प्रदर्शन में कथित तौर पर भाजपा के कुछ लोग भी शामिल थे। प्रदर्शनकारी हाथों में तिरंगा लेकर आरोपी की रिहाई की मांग कर रहे थे।

इससे संबंधित कुछ वीडियो वायरल हुए थे, जिसमें कथित तौर पर भाजपा नेताओं ने कहा था कि क्राइम ब्रांच को किसी की गिरफ़्तारी से पहले सोचना होगा और यहां जंगल राज नहीं होगा। वीडियो में भाजपा नेता आंदोलन की धमकी देते भी सुनाई दिए। जब ये मुद्दा उछला तो सियासत इस क़दर हावी हुई कि सत्तारूढ़ पीडीपी और सहयोगी भाजपा के बीच तल्ख़ी बढ़ती गई। हालांकि भाजपा ने अपने विधायकों के स्टैंड से ख़ुद को अलग कर लिया और मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने भी किसी तरह से झुकने से इन्कार कर दिया। कठुआ में रैली के बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने ट्वीट किया, ‘मुझे इस बात का दुख है कि पकड़े गए आरोपी के समर्थन में कठुआ में एक रैली निकाली गई। रैली में तिरंगे भी लहराए गए। यह तिरंगे का अपमान है। कानून अपना काम करेगा।’

विरोध के बीच पेश की चार्जशीट

अपराध शाखा ने सारे आरोपियों को गिरफ़्तार करके पुलिस ने इस महीने यानी 9 अप्रैल को आरोपपत्र दायर करने की तैयारी की थी। लेकिन उस दौरान बड़ी संवेदनहीनता वकीलों के एक समूह द्वारा दिखाई गई। जब अपराध शाखा को अदालत में आरोप पत्र दाखिल करना था, तब वकीलों के एक बड़े समूह ने अपराध शाखा का विरोध शुरू कर दिया। उन्होंने इतना हंगामा किया कि 9 अप्रैल को आरोप पत्र दाखिल नहीं हो पाया और फिर क्राइम ब्रांच ने आरोप पत्र 10 अप्रैल को दाखिल किया और ये भी तब हो पाया जब जम्मू कश्मीर के क़ानून मंत्री ने मामले में दखल दिया। इसके बाद छह घंटे के बाद चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने आरोप पत्र स्वीकार कर ली।

क्या कहा गया है चार्जशीट में

अपराध शाखा की चार्जशीट के मुताबिक, बलात्कार और हत्या की साज़िश रचने में सांझी राम का ही हाथ था। उसने बच्ची के अपहरण, दुष्कर्म और हत्या की योजना बनाई। उसने विशेष पुलिस अधिकारी खजुरिया और नाबालिग बताए गए एक अन्य आरोपी को अपनी साज़िश में शामिल किया। दीपक अपने दोस्त विक्रम के साथ सात जनवरी की शाम बिटू मेडिकल स्टोर गया और इपिट्रिल दवा के दस टैबलेट ख़रीदे, जिसका नाम उसके चाचा ने सुझाया था। इसी शाम सांझी राम ने भतीजे को आठ साल की मासूम का अपहरण करने को कहा। बच्ची अक्सर जंगल में आती थी। दस जनवरी को जब वह अपने जानवरों को खोज रही थी, उसी दौरान राम के भतीजे ने जानवरों के जंगल में होने की बात कही और अपने साथ थोड़ी दूर ले गया। फिर उसने बच्ची की गर्दन पकड़कर ज़मीन पर गिरा दिया। पिटाई से बच्ची बेहोश हो गई तो नाबालिग ने उसका दुष्कर्म किया। इसके बाद उसके साथी मन्नू ने भी दुष्कर्म किया। फिर वे बच्ची को एक मंदिर में ले गए, जहां उसे प्रार्थनाकक्ष में बंधक बनाकर रखा। चार्जशीट के मुताबिक, 11 जनवरी को नाबालिग बताए गए आरोपी ने एक अन्य आरोपी विशाल जंगोत्रा को लड़की के अपहरण की जानकारी दी। कहा कि अगर वह भी हवस बुझाना चाहता है तो मेरठ से जल्दी आ जाए। 12 जनवरी को विशाल जंगोत्रा रसाना पहुंचा। सुबह क़रीब 8:30 बजे आरोपी मंदिर गए और वहां भूखे पेट बंधक बनी लड़की को नशे की तीन गोली दी। चार्जशीट के मुताबिक, आरोप है कि जब सांझी राम ने कहा कि अब बच्ची की हत्या कर शव को ठिकाने लगाना होगा तो बच्ची के दुष्कर्म और हत्या की जांच में शामिल विशेष पुलिस अधिकारी खजुरिया ने कहा कि थोड़ा इंतज़ार करो, मैं भी करूंगा। फिर सभी ने आठ वर्षीय लड़की का सामूहिक दुष्कर्म किया। फिर गला घोंटकर और सिर पर पत्थर से प्रहार कर उसकी हत्या कर दी और शव को जंगल में फेंक दिया। चार्जशीट के मुताबिक, पुलिस टीम ने केस से बचाने के लिए दुष्कर्म के नाबालिग बताए गए आरोपी की मां से 1.5 लाख रुपये घूस भी ली। 

डोगरा समुदाय को बनाया जा रहा निशाना

दूसरी तरफ कठुआ बार एसोसिएशन के अध्यक्ष कीर्ति भूषण महाजन ने कहा कि मामले में अपराध शाखा की तहकीकात को लेकर बार एसोसिएशन हड़ताल पर है और सीबीआई जांच के पक्ष में है। जम्मू बार एसोसिएशन ने आरोप लगाया है कि अपराध शाखा डोगरा समुदाय को जांच में निशाना बना रही है. वे पिछले पांच दिन से हड़ताल पर हैं और उन्होंने 11 अप्रैल को जम्मू और कठुआ में बंद बुलाया। 11 अप्रैल को वकीलों के बंद का मिला-जुला असर रहा। वहीं, दूसरी ओर पुलिस ने कठुआ के 30 से 40 वकीलों के एक समूह के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज कर की, जिन्होंने प्रदर्शन किया और अपराध शाखा के अधिकारियों को ड्यूटी करने से रोकने का प्रयास किया। 

सीबीआई जांच की उठाई जा रही है मांग

रसाना मामले की सीबीआई जांच करवाने की मांग तब से उठ रही है, जब से पुलिस की अपराध शाखा ने मामले शामिल होने के आरोप में नाबालिग लड़कों को गिरफ्तार किया था। कई दिनों तक मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन होने के बाद भी मामला सीबीआई को नहीं सौंपा गया तो रसाना गांव की ही महिलाओं ने आमरण अनशन शुरू कर दिया गया। आमरण अनशन करने वालों 32 से लेकर 68 साल तक की महिलाएं शामिल हैं। इसके अलावा आमरण अनशन को हिंदू एकता मंच लगातार सहयोग कर रहा है। आमरण अनशन पर मुख्य आरोपित सांझी राम की पत्नी, बहन और बेटी भी हैं। महिलाओं का सीबीआई जांच की मांग को लेकर पिछले 16 दिन से अनशन जारी है। आमरण अनशन पर बैठी महिलाओं का आरोप है कि मामले में निर्दोष लोगों को साजिश के तहत फंसाया जा रहा है। हिंदू धर्म के लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। सभी लोग मामले की सीबीआई जांच करवाकर बच्ची की हत्या के मामले में दोषियों को सजा देने की मांग कर रहे हैं।

बच्ची के परिवार के रसाना गांव छोड़ने की चर्चा

रसाना में आठ वर्षीय बच्ची की हत्या के मामले को लेकर जारी तनावपूर्ण माहौल के बीच वीरवार देर शाम को पीड़ित परिवार के गांव छोड़कर चले जाने की चर्चा है। हालांकि स्थानीय लोगों के अनुसार, पीडि़त परिवार हर साल की तरह पहाड़ी क्षेत्र में शिफ्ट हुआ है। लोगों के अनुसार, गुज्जर बक्करवाल समुदाय के लोग मार्च-अप्रैल माह में गर्मियों में हर वर्ष मवेशियों को लेकर पहाड़ों की ओर चले जाते हैं, क्योंकि मैदानी इलाकों में चारे की कमी आ जाती है और सर्दियों में पहाड़ों पर बर्फ गिरने से मैदानों में आ जाते हैं। ऐसा सिर्फ पीडि़त परिवार ही नहीं बल्कि अन्य गांव में बसे परिवार भी करते हैं। स्थानीय निवासी भागमल खजूरिया ने कहा कि पीड़ित परिवार का हर साल की तरह इस बार भी पहाड़ों की ओर चले जाने पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। मगर यह परिवार घटना के कुछ दिनों के बाद से ही गांव छोड़कर जा चुका है।

पीड़िता के परिवार ने ही की हत्या

शुक्रवार 13 अप्रैल को मामले में एक और खुलासा करते हुए हिंदू एकता मंच के सदस्य और गांव के पूर्व सरपंच कांत कुमार शर्मा ने आरोप लगाया है कि बच्ची की हत्या के आरोप में जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनमें से किसी ने भी बच्ची की हत्या नहीं की है। बच्ची की हत्या उसी के परिवार के सदस्यों ने की है। उन्होंने पुलिस की अपराध शाखा द्वारा पेश की गई चार्जशीट में लगाए गए आरोपों को पूरी तरह से एक साजिश बताया और कहा कि शाखा ने सभी आरोप एक कहानी बनाकर लगाए हैं, जो पूरी तरह से निराधार हैं।

हमारी शिक्षा व्यवस्था में सुधार जरूरी

किसी व्यक्ति की मनोवृत्ति का निर्माण उसके जीवन, उसके आचरण के अनुरूप ही होता है। उसका जीवन तथा आचरण का मूल आधार है उसकी शिक्षा। कहा गया है “जैसा खावे अन्न वैसा बने मन।” यहाँ पर अन्न का अर्थ भोजन है, जो शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार का होता है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि आजकल मानव समाज में जो तरह-तरह के छोटे-बड़े दोष और कमियां दिखती हैं, उनका मूल ही शिक्षा है।

आजकल हर जगह शिक्षा प्रसार की नई-नई योजनाएं बन रही हैं। केंद्र सरकार इसकी घोषणा भी कर चुकी है कि वह शीघ्र ही देश से निरक्षरता मिटा देगी। मगर विचार यह करना है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली कैसी है और वह किस प्रकार के जीवन का निर्माण कर रही है तथा शिक्षा वास्तव में कैसी होनी चाहिए। वर्तमान शिक्षा पद्धति को सात शत्रु बुरी तरह से जकड़े हुए हैं। मस्तिष्क, दंड, परीक्षा, कुरूप भवन, अत्यधिक कार्य, स्वाभिमान रहित अध्यापक तथा संकुचित मनोवृत्ति के माता-पिता। 
बेचारे विद्यार्थियों को इतनी अधिक पुस्तकें पढ़नी पड़ती हैं, इतने प्रकार के विषयों का अध्ययन करना पड़ता है कि उनका दिमाग, शरीर और मन सब कुछ बुरी तरह से पिस जाता है। भाँति-भाँति के दण्ड और हर समय परीक्षाओं का डर उसे खाए जाता है। सिवाय पढ़ने और पढ़कर परीक्षा पास करने के वह कुछ और सोच ही नहीं सकता। गंदे और तंग मकानों में गंदे टाटों या गंदी और भद्दी मेज-कुर्सियों पर बैठकर उन्हें पढ़ना पड़ता है, अतः उनके लिए स्वच्छ वायुमण्डल एक दुर्लभ पदार्थ है। स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक विद्यार्थियों को केवल इसलिए पढ़ाते हैं कि उनकी नौकरी बनी रहे, विद्यार्थियों के भले-बुरे से उन्हें कोई मतलब नहीं। वे हमेशा अपने ट्यूशन की चिंती में लगे रहते हैं और धन कमाने के लालच में अपने स्वाभिमान, गुरुत्व और शिक्षक पदवी के महत्व को गंवा बैठते हैं।
विद्यालय के बाहर घर पर भी विद्यार्थी का यही हाल रहता है? घर पर वह जब तक कम से कम चार घंटे नित्य नियमपूर्वक न पढ़ें, तब तक अध्यापक द्वारा बताया घर पर किया जाने वाला काम पूरा नहीं होता और फिर इन सबके ऊपर है उस पर सवार नौकरी का भूत। बालक को दिन-रात किताबों से चिपके देखकर माता-पिता को पूरा विश्वास हो जाता है कि उनकी साधना तथा बच्चे की तपस्या दोनों ही सफल है। बड़ा होने पर उसे अवश्य ही कोई अच्छी नौकरी मिल जाएगी। अच्छी नौकरी पाना ही जब सब प्रकार से जीवन का उद्देश्य हो जाए तो मानसिक विकास का प्रश्न ही कहाँ रहता? आजकल तो विद्या और नौकरी एक दूसरे के पूरक बन गए हैं। ऐसी हालत में प्रत्येक मनुष्य स्वार्थ-साधना में तल्लीन रहेगा, इसके सिवाय उससे और किस बात की आशा की जा सकती है? ऐसा व्यक्ति समाज के कल्याण की ओर क्या ध्यान दे सकता है?

आजकल की शिक्षा व्यवस्था वास्तव में बहुत दोषयुक्त हो गई है। इसको मिटाकर ऐसी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करनी होगी जो व्यक्ति को अपने ऊपर जीत हासिल करने के काबिल बना सके। ज्ञान का अन्तिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही होना चाहिए। 

राजनीतिः संसद से सड़क तक जंग

9 को कांग्रेस तो 12 अप्रैल को भाजपा का देशव्यापी अनशन होगा, 23 दिनों तक संसद के भीतर के हंगामे का नजारा सत्र समापन के बाद बाहर भी दिख गया और चुनावी मौसम के आने वाले दिनों में भी दिखेगा

लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद में तीन हफ्ते तक एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी भाजपा और कांग्रेस अब इस लड़ाई को सड़क तक ले जाने लगी हैं। दोनों पार्टियों ने संसद नहीं चलने देने के लिए एक-दूसरे को दोषी बताते हुए देशव्यापी अनशन का ऐलान कर दिया है। इसकी बानगी तो संसद परिसर में देखने को मिल गई। जहां दोनों पार्टियों के सांसदों ने एक-दूसरे के खिलाफ धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया। 
23 दिनों तक संसद के भीतर के हंगामे का नजारा सत्र समापन के बाद बाहर भी दिख गया और चुनावी मौसम में आने वाले दिनों में भी दिखेगा। दरअसल इसका पूरा खाका तैयार हो रहा है। भाजपा सांसदों व मंत्रियों ने संसद नहीं चलने देने के लिए संसद परिसर में महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने धरना प्रर्दशन किया तो कांग्रेस के सांसद भी भाजपा के खिलाफ नारेबाजी करते हुए वहीं पहुंच गए। आमने-सामने जमकर हुई इस नारेबाजी के बाद भाजपा नेताओं ने भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा तक तो मार्च भी निकाल दिया। इससे पहले सुबह ही भाजपा ने आगे का खाका तैयार कर लिया था। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा सांसदों को टास्क दे दिया है। सभी सांसद अपने -अपने क्षेत्रों में संसद नहीं चलने देने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराते हुए 12 अप्रैल को पूरे दिन अनशन करेंगें। इसके जवाब में कांग्रेस ने भी भाजपा पर विभाजनकारी राजनीति करने का आरोप लगाते हुए 9 अप्रैल को देशभर में जिला मुख्यालयों पर अनशन करने ऐलान कर दिया। 

एससी/एसटी लोगों के घरों में रहेंगे भाजपा सांसद

अनशन के साथ ही भाजपा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलितों के मुद्दे पर कांग्रेस के हमले का जवाब देने की रणनीति भी तैयार कर ली है। इसके लिए सभी भाजपा सांसदों को अपने-अपने क्षेत्रों में दलितों के मसीहा बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के जन्मदिन के अवसर पर कार्यक्रम आयोजित करने को कहा है। यह सभी सांसदों के लिए अनिवार्य कर दिया गया है। इसके साथ ही भाजपा 14 अप्रैल से पांच मई तक 'ग्राम स्वराज अभियान' चलाने की योजना तैयार की है। इसके तहत सभी भाजपा सांसद अपने-अपने क्षेत्रों में एक रात ऐसे गांव में गुजारेंगे, जिसकी आबादी एक हजार से अधिक है। इस दौरान सांसद उज्ज्वला और मुद्रा योजना समेत केंद्र सरकार की सात योजनाओं को शतप्रतिशत क्रियान्वयन सुनिश्चित करेंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने पार्टी सांसदों को बताया कि देश में 50,844 गांव ऐसे हैं, जिनमें 50 फीसदी से अधिक आबादी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों की है। जाहिर है भाजपा की कोशिश अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों को अब तक दिए गए कोरे आश्वासन की जगह मोदी सरकार के ठोस काम को दिखाने की है।

कांग्रेस के तेवर भी हुए तीखे

अभी तक भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश में पीछे छूट गई कांग्रेस के तेवर भी चुनावी साल में तीखे हो गए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों पर राहुल गांधी के रोजाना कटाक्ष वाले ट्विटर के अलावा कांग्रेस ने जमीन पर भाजपा के साथ लड़ाई का मन बना लिया है। 9 अप्रैल को सभी जिला मुख्यालयों पर अनशन इसी रणनीति की एक कड़ी है। पार्टी के वरिष्ट नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने भाजपा सांसदों के वेतन नहीं लेने और अनशन को नाटक बताते हुए कहा कि संसद नहीं चलने के लिए पूरी तरह भाजपा जिम्मेदार है। उन्होंने कहा कि 9 अप्रैल को कांग्रेस पूरे देश में भाजपा के इस झूठ को बेनकाब करेगी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने कहा कि राज्यसभा के सभापति के सामने उन्होंने सत्र को 15 दिनों तक बढ़ाने का प्रस्ताव दिया था, ताकि अहम मुद्दों पर बहस हो सके। लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया।

भाजपा सांसद नहीं लेंगे वेतन 

भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के संसद सदस्य बजट सत्र के दूसरे चरण के 23 दिन का वेतन एवं भत्ता नहीं लेंगे। संसदीय कार्य मंत्री अनंत कुमार ने बुधवार को कहा था कि भाजपा नीत राजग के सांसदों ने संसद में कामकाज न हो पाने के कारण 23 दिन का वेतन एवं भत्ता न लेने का फैसला किया है। कुमार ने कहा, ये वेतन एवं भत्ते जनता की सेवा के लिए दिए जाते हैं और यदि हम काम कर पाने में सक्षम नहीं रहे हैं, तो हमें जनता का पैसा लेने का कोई हक नहीं है। उन्होंने आरोप लगाया था कि कांग्रेस के गैर-लोकतांत्रिक राजनीति के कारण लोकसभा एवं राज्यसभा में कामकाज नहीं हो पा रहा है। कुमार ने कहा, हम हर मसले पर बहस को तैयार हैं, लेकिन वे (कांग्रेस) दोनों सदनों में कामकाज नहीं होने दे रहे हैं। गौरतलब है कि पांच मार्च को शुरू बजट सत्र के दूसरे चरण में एक भी दिन कोई कामकाज नहीं हो सका है और कांग्रेस सहित विभिन्न विपक्षी दल अलग-अलग मुद्दों पर कार्यवाही को बाधित करते रहे हैं। 

महंगाई का बीज, रुपये का गिरना

महंगाई तू कहां से आई, तुझे क्यों लाज न आई। यह गाना 80 के दशक का अति लोकप्रिय गाना था और आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं जितना उस समय था। महंगाई किसी भी अर्थ व्यवस्था के लिए घातक है और चिंता का विषय है। चाहे जितना भी आर्थिक विकास कोई देश कर ले, अगर महंगाई पर लगाम नहीं कस सके तो विकास का लाभ जन जन तक नहीं पहुंच पाएगा। फलस्वरूप देश का एक बहुत बड़ा वर्ग विकास के लाभ से वंचित रह जाता है। अब विषय यह है कि महंगाई कहां से और कैसे आती है। हमें तो आती हुई भी नहीं दिखाई देती सिर्फ आने के बाद ही पता चलता है कि महंगाई आ गई, खास कर जब दुकान से सामन लेने जाए तब ही महंगाई के बारे में जानकारी होती है। अर्थ शास्त्री शायद जानते हो इस महंगाई का रहस्य। आमतौर पर जनता तो यही जानती कि बढ़ती जनसंख्या और मांग और पूर्ति में विषमता। यही हमें सिखाया भी जाता है। यही अर्थ शास्त्र के सिद्धांत हैं, परन्तु आज के इस नए अर्थव्यस्था जिसमे राजनीति एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, सिर्फ अर्थशास्त्र का सिद्धांत ही अर्थ व्यवस्था को प्रभावित नहीं करते हैं। महंगाई को प्रभावित करने वाला एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण हैं देश की मुद्रा का विदेश विनिमय दर और यह जो कारण हैं वह दीर्घकालीन कारण हैं। अगर हम पिछले 50 वर्षो के महंगाई के ग्राफ को देखें तो हमें रुपये का गिराना और महंगाई का बढ़ने में एक सीधा संबंध मिलेगा। बाकी अन्य कारण जैसे की बारिश न होना, आय अधिक होना या आकस्मिक कारणों से व्यापार में असंतुलन होना यह अल्पकालीन कारण हैं। इससे लंबे समय तक महंगाई नहीं बढ़ती है। परंतु जिस महंगाई का जिक्र कर रहे हैं उसका जनक रुपये का गिराना है। और यह जो गुप्त कारण हैं जिसे जनता नहीं जानती हैं वह प्राय विश्व के तमाम देशी की भी यही कहानी हैं | अगर हर देश अपने देश की मुद्रा को गिरने से रोक सके तो महंगाई के इस वर्तमान रौद्र रूप पर लगाम लगाया जा सकता हैं |

शहीदी दिवसः फांसी का तख्ता बना मंडप, फंदा वरमाला और मौत दुल्हन

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शहीदी दिवस के मौके पर आपको बता रहा हूँ, आज के पाकिस्तान और तत्कालीन में जन्मे भगत सिंह के जीवन से जुड़ी 10 ऐसी बातें, जो शायद ही आपको पता हों। भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत के लायलपुर जिले (अब पाकिस्तान) के बंगा गांव में एक सिख परिवार में हुआ था। हालांकि उनके जन्म तारीख पर कुछ विरोधाभास है, लेकिन उनका परिवार 28 सितंबर को ही जन्मदिवस मनाता है। वहीं, कुछ जगहों पर 27 सितंबर को उनके जन्मदिन का जिक्र मिलता है। भगत सिंह के पूर्वजों का जन्म पंजाब के नवांशहर के समीप खटकड़कलां गांव में हुआ था। इसलिए खटकड़कलां इनका पैतृक गांव है। भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह पहले सिख थे जो आर्य समाजी बने। इनके तीनों सुपुत्र-किशन सिंह, अजीत सिंह व स्वर्ण सिंह प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे। 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह पर गहरा असर डाला और वे भारत की आजादी के सपने देखने लगे। भगत सिंह के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आने का एक बहुत बड़ा कारण था, उनका लाहौर स्थित ‘नर्सरी ऑफ पैट्रिआट्स’ के रूप में विख्यात नैशनल कालेज में सन् 1921 में दाखिला लेना। इस कॉलेज की शुरुआत लाला लाजपत राय ने की थी। कॉलेज के दिनों में भगत ने एक्टर के रूप में कई नाटकों मसलन राणा प्रताप, सम्राट चंद्रगुप्त और भारत दुर्दशा में हिस्सा लिया। 
जानकर हैरानी होगी कि परिजनों ने जब भगत सिंह की शादी करनी चाही तो वह घर छोड़कर कानपुर भाग गए। अपने पीछे जो खत छोड़ गए, उसमें उन्होंने लिखा कि उन्होंने अपना जीवन देश को आजाद कराने के महान काम के लिए समर्पित कर दिया है। इसलिए कोई दुनियावी इच्छा या ऐशो-आराम उनको अब आकर्षित नहीं कर सकता। ऐसे में शहीद-ए-आजम की शादी हुई पर कैसे हुई इसके बारे में बताते हुए भगत सिंह की शहादत के बाद उनके घनिष्ठ मित्र भगवती चरण वोहरा की धर्मपत्नी दुर्गा भाभी ने, जो स्वयं एक क्रांतिकारी वीरांगना थीं, कहा था, ‘‘फांसी का तख्ता उसका मंडप बना, फांसी का फंदा उसकी वरमाला और मौत उसकी दुल्हन।’’

स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भगत सिंह का अतुलनीय योगदान

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एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भगत सिंह का योगदान भी अपने आप में अतुलनीय है। 8 अप्रैल, 1929 को गिरफ्तार होने से पूर्व उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की प्रत्येक गतिविधि में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। 1920 में जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया, उस समय भगत सिंह मात्र 13 वर्ष के थे और 1929 में जब गिरफ्तार हुए तो 22 वर्ष के। इन 9 वर्षों में उनकी एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में गतिविधियां किसी भी देशभक्त से कम नहीं।   उनके परिवार को देशभक्त होने के कारण ब्रिटिश राज के उस दौर में बागी माना जाता था। यह खुलासा किया उनके भतीजे किरणजीत सिंह संधू ने। किरणजीत सिंह संधू कहते हैं कि स्वार्थी राजनीतिज्ञों की वजह से देश में आज भी शहीदों के सपने साकार नहीं हुए हैं। आज भी देश जाति, धर्म, क्षेत्रवाद आदि में बंटा हुआ है। कुछ स्वार्थी नेता सत्ता के लालच में देश के प्रति फर्ज भूल रहे हैं।   लाहौर षड़यंत्र केस में उनको राजगुरू और सुखदेव के साथ फांसी की सजा हुई और 24 मई 1931 को फांसी देने की तारीख नियत हुई। लेकिन नियत तारीख से 11 घंटे पहले ही 23 मार्च 1931 को उनको शाम साढ़े सात बजे फांसी दे दी गई, जो कि नाजायज तौर पर दी गई थी। उनके नाम एफआईआर में थे ही नहीं। झूठ को सच बनाने के लिए पाक सरकार ने 451 लोगों से झूठी गवाही दिलवाई। भगत सिंह मैमोरियल फाउंडेशन, पाक के चेयरमैन एडवोकेट इम्तियाज राशिद कुरैशी ऐसा कहते हैं। कुरैशी ने जलियांवाला बाग में भारतीय एडवोकेट मोमिन मलिक को पुलिस की एफआईआर समेत सारे अदालती दस्तावेज भेंट किए और इस मामले में इंसाफ हासिल करने का दावा भी किया। अब इस मामले को पाकिस्तानी अदालत में रीओपन करने के बाद इसकी स्टडी हिंदुस्तान में होगी।

अंग्रेजों को भगाने के लिए क्यों न खेतों में पिस्तौले उगा ली जाएंः भगत सिंह 

आठ वर्ष की खेलने की उम्र में जब बच्चों को खिलौनों का शौक होता है, भगत सिंह अपने पिता से पूछते थे कि अंग्रेजों को भगाने के लिए क्यों न खेतों में पिस्तौले उगा ली जाएं। पिस्तौलों की जो फसल उगेगी उससे अंग्रेजों को आसानी से भारत से भगाया जा सकेगा। उस दौर में पंजाब में अराजकता का माहौल था। 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग की घटना हुई तो उस समय भगत सिंह मात्र 12 वर्ष के थे। 10 मिनट की गोलीबारी में 379 लोगों की मौत हुई और 2000 के करीब घायल हुए। हालांकि कुछ लोगों ने मृतकों की संख्या 1000 से अधिक बताई। वे महात्मा गांधी का सम्मान तो बहुत करते थे लेकिन उनकी अहिंसा वाली पद्धति से बहुत निराश थे। 1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए हो रहे प्रदर्शन पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज में लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई। इस का बदला लेने के लिए 17 दिसंबर 1928 को करीब सवा चार बजे, एएसपी सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सिर में मारी। इसके बाद भगत सिंह ने 3-4 गोली दाग दीं। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया - "आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया। भगत सिंह का पैतृक गांव खटकड़कलां है, इनकी पढ़ाई लाहौर के डीएवी हाई स्कूल में हुई। वे कई भाषाओं के धनी थे। अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू के अलावा पंजाबी पर भी उनकी खास पकड़ थी। कालेज में भगत सिंह ने इंडियन नेशनल यूथ आर्गेनाइजेशन का गठन किया। अच्छे थियेटर आर्टिस्ट के साथ-साथ उनका शैक्षणिक रिकार्ड भी बढ़िया रहा। स्टेज पर उनका प्रदर्शन राणा प्रताप, सम्राट चंद्रगुप्त और भारत की दुर्दशा दिखाता हुआ होता था। बाद में भगत सिंह ने अपनी थियेटर की कलाओं को भारतीयों के बीच देशभक्ति की भावनाएं जगाने में किया। भगत सिंह ने एक क्रांतिकारी लेखक का भी रोल अदा किया। शहीद भगत सिंह का फिरोजपुर से गहरा रिश्ता था। यह ठिकाना क्रांतिकारी डॉ. गया प्रसाद ने किराए पर ले रखा था। इसके नीचे केमिस्ट की दुकान थी और ऊपर क्रांतिकारियों का ठिकाना। यहां भगत सिंह, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद के अलावा अन्य क्रांतिकारियों का भी आना जाना था। यह ठिकाना पार्टी की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। क्रांतिकारी पंजाब से दिल्ली, कानपुर, लखनऊ और आगरा आने जाने के लिए फिरोजपुर में बने इस ठिकाने पर आकर अपनी पहचान बदलते थे, फिर ट्रेनों में यात्रा करते थे। बम बनाने का सामान जुटाने के लिए क्रांतिकारी डॉ. निगम को यहां पर केमिस्ट की दुकान खुलवाई थी। क्रांतिकारियों का गुप्त ठिकाना 10 अगस्त 1928 से लेकर 4 फरवरी 1929 तक रहा। लाहौर में 17 दिसंबर 1928 को सहायक सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस सांडरस व हेड कांस्टेबल चानन सिंह की हत्या कर दी थी, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद समेत कई क्रांतिकारी शामिल थे। पहले जेल में ही भगत सिंह ने धर्म और ईश्वर के अस्तित्व को लेकर लंबा लेख लिखा। लेख लिखने की वजह भगत सिंह के साथ सेंट्रल जेल में ही बंद बाबा रणधीर सिंह थे, जो 1930 से लेकर 1931 तक भगत सिंह के साथ रहे। वे धार्मिक थे, धर्म और ईश्वर को लेकर भगत सिंह से लंबी चर्चा करते रहे। उन्होंने भगत सिंह को ईश्वर में विश्वास दिलाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन वे उन्हें समझा नहीं सके। ईश्वर, नास्तिकता और धर्म को लेकर भगत सिंह का यह लेख 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में 'मैं नास्तिक क्यों हूं?' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। यह लेख भगत सिंह के संपूर्ण लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है। 
 “मेरी ज़िन्दगी आज़ादी-ए-हिन्द के असूल के लिए समर्पित दुनियावी ख्वाहिशों और आकर्षण नहीं ”
इस बात का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता कि भगत सिंह की कोई प्रेमिका थी। कुछ इतिहासकार ये जरूर मानते हैं कि भगत सिंह के परिवार वालों ने 16 साल की उम्र में ही उनकी शादी तय करने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं इस बात से नाराज होकर भगत सिंह अपने घर से भागकर कानपुर चले गए थे। घर से जाते समय उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखकर कहा, “मेरी ज़िन्दगी आज़ादी-ए-हिन्द के असूल के लिए समर्पित हो चुकी है। इसलिए मेरी ज़िन्दगी में आराम और दुनियावी ख्वाहिशों और आकर्षण नहीं हैं।” भगत सिंह ने अपने पत्र में घर छोड़ने के लिए अपने पिता से माफी मांगते हुए लिखा है, “उम्मीद है कि आप मुझे माफ फरमाएंगे।”   

सरकार नहीं सिर्फ जनता मानती है शहीद-ए-आजम मानती

महान क्रांतिकारी भगत सिंह को अंग्रेजों ने 23 मार्च 1931 को लाहौर में फांसी दे दी थी। वह देश की आजादी के लिए ब्रिटिश सरकार से लड़ रहे थे, लेकिन भारत की आजादी के 70 साल बाद भी सरकार उन्हें दस्तावेजों में शहीद नहीं मानती। अलबत्ता जनता उन्हें शहीद-ए-आजम मानती है। अप्रैल 2013 में केंद्रीय गृह मंत्रालय में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लेकर एक आरटीआई डाली गई, जिसमें पूछा कि भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को शहीद का दर्जा कब दिया गया। यदि नहीं तो उस पर क्या काम चल रहा है? इस पर नौ मई को गृह मंत्रालय का हैरान करने वाला जवाब आया। इसमें कहा गया कि इस संबंध में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है। तब से शहीद-ए-आजम के वंशज (प्रपौत्र) यादवेंद्र सिंह संधू सरकार के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं।   

अमर शहीद शिवराम हरी राजगुरु 

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शहीद राजगुरु का पूरा नाम 'शिवराम हरि राजगुरु' था। राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को पुणे ज़िले के खेड़ा गाँव में हुआ था, जिसका नाम अब 'राजगुरु नगर' हो गया है। उनके पिता का नाम 'श्री हरि नारायण' और माता का नाम 'पार्वती बाई' था। भगत सिंह और सुखदेव के साथ ही राजगुरु को भी 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी।राजगुरु `स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं उसे हासिल करके रहूंगा' का उद्घोष करने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे। 1919 में जलियांवाला बाग़ में जनरल डायर के नेतृत्व में किये गये भीषण नरसंहार ने राजगुरु को ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ बाग़ी और निर्भीक बना दिया तथा उन्होंने उसी समय भारत को विदेशियों के हाथों आज़ाद कराने की प्रतिज्ञा ली और प्रण किया कि चाहे इस कार्य में उनकी जान ही क्यों न चली जाये वह पीछे नहीं हटेंगे।

अमर शहीद सुखदेव थापर

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सुखदेव थापर का जन्म पंजाब के लुधियाना जिले में 15 मई, 1907 में रामलाल और रल्ली देवी के घर हुआ था। इनके जन्म से 3 महीने ही इनके पिता का निधन हो गया था। इसलिए इनके लालन पोषण में इनके ताऊ अचिंतराम ने इनकी माता को पूर्ण सहयोग दिया। सुखदेव को इनके ताऊ व ताई ने अपने बेटे की तरह पाला पोसा। यह शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के परम मित्र थे। सुखदेव ने लाला लाजपत राय की मौत का बदल लेने के लिए अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी साण्डर्स की हत्या की योजना रची थी। जिसे 17 दिसम्बर, 1928 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने अंजाम दिया था। इन्होंने महात्मा गाँधी द्वारा क्रांतिकारी गतिविधियों को नाकरे जाने के फलस्वरूप अंग्रेजी में गाँधी जी को एक खुला पत्र लिखा था जो कि तत्कालीन समय में बहुत ही चर्चाओं में रहा और युवा वर्ग में काफी लोकप्रिय भी हुआ।

तीनों अमर शहीद 1 साल के भीतर ही पैदा हुए 

यह एक संयोग ही है कि यह तीनों अमर शहीद 1 साल (1907-1908) के भीतर ही पैदा हुए और 23 मार्च, 1931 को एक दिन एक साथ ही शहीद हो गए। इनकी इस शहादत को भारत का हर एक बच्चा आज तक भी नहीं भूल पाया है और आनी वाली कई सदियों तक नहीं भूल सकेगा। भारत माता के इन अनमोल रत्नों की शहादत को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।  नई दिल्ली। आज है शहीदी दिवस, 1931 में आज ही के दिन शहीदे आज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी। 

क्या 2019 के आम चुनाव से पहले पीडीपी कट्टर एजेंडे की तरफ वापसी कर रही है?


जम्मू-कश्मीर में वित्त मंत्री हसीब द्राबू की बर्खास्तगी ने भाजपा और पीडीपी गठबंधन की सरकार पर सवाल खड़े कर दिए हैं। बर्खास्तगी के बाद भाजपा आलाकमान ने भी जम्मू-कश्मीर के अपने नेताओं को दिल्ली तलब किया। दरअसल, हसीब द्राबू ही वो शख्स हैं जिन्होंने भाजपा सेक्रेटरी राम माधव के साथ मिलकर इस गठबंधन की नींव रखने में अहम रोल निभाया था। गठबंधन पर सवालिया निशान के उभरने की कई वजहें हैं। हाल के घटनाक्रम को देखें तो सीएम महबूबा मुफ्ती खुलकर कई मुद्दों पर भाजपा का विरोध करती नजर आई हैं।राज्य में भाजपा-पीडीपी गठबंधन के 3 साल हो चुके हैं। साल 2019 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। 2020 में राज्य में विधानसभा चुनाव भी होने हैं। माना जा रहा है कि चुनावी मौसम नजदीक आते ही मुफ्ती गठबंधन के न्यूनतम साझा कार्यक्रम के एजेंडे को छोड़कर अपने कोर कट्टर एजेंडे की राजनीति की तरफ वापस आना चाह रही हैं।



हसीब द्राबू की बर्खास्तगी

पीडीपी में हसीब द्राबू (57) की हैसियत वरिष्ठ नेता की थी। साल 2015 में जम्मू-कश्मीर के वित्तमंत्री बने द्राबू को पीडीपी की कोर टीम का हिस्सा माना जाता रहा है। धारा 370 के तहत राज्य के पास विशेष दर्जा होने के बावजूद उन्होंने भाजपा सरकार की जीएसटी योजना को लागू करवाने में भी बड़ी भूमिका निभाई। कई सालों से पार्टी के साथ बने रहे वरिष्ठ नेता को एक विवादित बयान पर नोटिस दिए जाने के 24 घंटे के भीतर आनन-फानन में निकाला जाना सवाल खड़े कर दिए है। द्राबू का खुद कहना है कि उनको हटाने का फैसला स्तब्ध करने वाला था। द्राबू ने कहा था, जम्मू-कश्मीर को राजनीतिक मसले की तरह नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि ये एक ऐसा समाज है जो अपनी सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा है।, जबकि पीडीपी मानती है कि जम्मू कश्मीर एक राजनीतिक मुद्दा है और इसका समाधान भी राजनीतिक तौर से ही निकलना है।

मुफ्ती के इस कदम से उनकी मजबूत और कड़े फैसले लेने वाली पार्टी हेड की इमेज बनी है। गठबंधन से नाराज जनता के बीच खोई राजनीतिक जमीन हासिल करने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा सकता है।

शोपियां केस ने की सियासत गर्म

जनवरी 2018 में शोपियां फायरिंग केस में सेना के जवानों और मेजर आदित्य पर एफआईआर के बाद भी पीडीपी और भाजपा के बीच तनातनी हो गई। घाटी में इसे लेकर तनाव काफी बढ़ गया और सेना के खिलाफ कई विरोध-प्रदर्शन हुए। वहीं सेना के समर्थन में भी जमकर प्रदर्शन हुए। विधानसभा में भाजपा ने एफआईआर में से मेजर का नाम हटाने की मांग की थी। भाजपा का कहना था कि इससे सेना का मनोबल गिरेगा, लेकिन सीएम महबूबा मुफ्ती ने इसे खारिज कर दिया और कहा कि जांच को तार्किक नतीजे तक पहुंचाया जाएगा।महबूबा ने सदन में कहा था, ये एक दुर्भाग्‍यपूर्ण घटना है, लेकिन आर्मी का मनोबल सिर्फ एक एफआईआर से नहीं गिरेगा। सेना में भी दागी मौजूद हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने मेजर आदित्य के खिलाफ सभी जांच पर रोक लगा दी है। मामले में अगली सुनवाई अब 24 अप्रैल को होनी है।

रसाना मामले को लेकर भी रार

इस बीच कठुआ में हुए 8 साल की मुस्लिम बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या की घटना पर भी सियासत जारी है। 10 जनवरी 2018 में 8 साल की बच्ची को अगवा कर पहले तो उसके साथ बलात्कार (ऐसा कहा जा रहा है) किया गया फिर उसकी हत्या कर दी गई थी। इस मामले में एक एसपीओ दीपक खजुरिया को गिरफ्तार किया गया है। महबूबा मुफ्ती सरकार ने 23 जनवरी को बच्ची को अगवा कर हत्या करने के मामले की जांच के आदेश दिए थे और मामले को राज्य पुलिस की क्राइम ब्रांच को सौंप दिया था, जबकि भाजपा राज्य सरकार के कानून-प्रशासन पर सवाल उठाते हुए इस मामले में सीबीआई जांच की मांग कर रही है और इसके विरोध में लगातार  विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। 2 भाजपा नेताओं जो राज्य सरकार में मंत्री पद पर आसीन हैं, ने हिंदू एकता मंच की रैली में हिस्सा लिया था। ये रैली घटना की सीबीआई जांच की मांग को लेकर निकाली गई थी। साथ ही ये भी मांग की गई थी कि फिलहाल खजुरिया पर लगे रेप मामले वापस ले लिए जाएं, लेकिन महबूबा मुफ्ती ने सिरे से इस मांग को खारिज कर दिया।
इसको लेकर उन्होंने ट्वीट भी किया, कुछ लोग कठुआ केस को लेकर गलतफहमी पैदा कर रहे हैं. जांच को लेकर किसी भी गलतफहमी की गुंजाइश नहीं है। कोर्ट की देखरेख में एक बहुत ही सक्षम पुलिस प्राधिकरण इस मामले की जांच कर रही है। किसी भी रैली या अभियुक्त के समर्थन में प्रदर्शन अनैतिक है। बता दें, हिंदू एकता मंच के प्रमुख एडवोकेट विजय कुमार शर्मा भाजपा की राज्य समिति के सदस्य हैं।

इन तमाम ताजा घटनाक्रम को देखते हुए लग रहा है कि भले ही राज्य में 2015 में बनी भाजपा-पीडीपी गठबंधन अपने मिडटर्म में हो पर कहीं मंझधार में ना फंस जाए। दोनों पार्टियां कई मुद्दों को लेकर आमने-सामने विपक्ष के तौर पर खड़ी नजर आ रही है। खासतौर पर सीएम महबूबा मुफ्ती के बयान और ट्वीटर के जरिए लोगों तक इन मुद्दों पर मजबूती से अपनी बात पहुंचाने की कवायद सिग्नल दे रही है कि गठबंधन का अस्तित्व खतरे में है।


महबूबा पर लाल हुए मंत्री, बोले CBI जांच में क्या है दिक्कत

वन मंत्री चौधरी लाल सिंह ने रसाना तथा जनजातीय मामले में मुख्यमंत्री का नाम लिए बगैर उनपर जमकर हमला किया। कहा कि रसाना मामले की सीबीआई जांच में क्या दिक्कत है? गुज्जरों को सरकारी भूमि पर रहने के आदेश पर बोले कि यह राजा-महाराजाओं का समय नहीं है कि मुंह से बोला और वह कानून हो गया।

धर्म के नाम पर जम्मू के माहौल को बिगाड़ने की साजिश की जा रही है। वे रविवार को जन शिकायत निवारण शिविर में लोगों को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि 1947 से पहले धर्म के नाम पर राज्य में कभी ऐसा माहौल नहीं बना। राज्य में हिंदू-मुस्लिम एकता को कभी इस तरह नहीं तोड़ा गया, जैसा आज सत्ता के लालच में कुछ पार्टियां कश्मीर के बाद जम्मू में भी कर रही हैं। उन्होंने कहा कि कानून से ऊपर कुछ नहीं। सरकार भी कानून के दायरे में बंधी है। बिना मतलब के आदेश जारी कर खास लोगों को रहने के लिए संरक्षण नहीं दिया जा सकता। कानून सबके लिए एक है। कानून से ऊपर मुख्यमंत्री भी नहीं हैं। उन्होंने कहा कि चाहे जिले की मांग को लेकर आंदोलन हो या फिर हीरानगर में बच्ची की मौत पर राजनीति, यह केवल सत्ता के लालची लोग कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि क्या हुआ यदि मंच में हिंदू नाम है, असल बात यह है कि हिंदू एकता मंच ने कभी धर्म विशेष के नाम पर ध्यान नहीं दिया।

आपने जांच करवाई और लोगों को भरोसा नहीं, तो सीबीआई जांच करवाने में क्या दिक्कत है। इससे राज्य का माहौल खराब हो रहा है। हर कोई बच्ची को इंसाफ की बात कर रहा है। ऐसा किसी धर्म के कारण नहीं है। सत्ता के लालच में कुछ लोगों ने इसे धर्म से जोड़ा।

आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा।

आखिर हत्यारा कौन, क्राइम ब्रांच मौन

हीरानगर के रसाना गांव में हुई आठ वर्षीय बच्ची की हत्या की अब तक हुई जांच पर सवाल उठता है कि कहीं कुछ ऐसा है, जो दबा है या दबा दिया गया है अथवा दबाया जा रहा है। क्या कोई षड्यंत्र रचा गया ? या, पुलिस और क्राइम ब्रांच जांच करने में अक्षम हैं? या, कहीं और चूक हो रही है जो अभी तक मामले की जांच ही पूरी नहीं हो पाई है? यह सवाल फिर से फन फैलाकर समूची व्यवस्था पर फुफकार रहा है कि आखिर बच्ची का कातिल कौन? अब इस किंवदंती बनते हुए रहस्य पर से अगर कोई परदा उठा सकता है, तो वे खुद बच्ची है । मगर करें क्या, मुर्दों की आत्माएं बोला नहीं करती। 
काश ! भगवान या अल्लाह ने अगर मर कर परलोक अथवा जन्नत में चले जाने वाले लोगों को भी बोलने का हक दिया होता, तो मरने से पहले उन लोगों के साथ किसने क्या किया, यह सब बता पाते तो मुझे यकीन है हीरानगर की बच्ची भी अब अपनी लम्बी निद्रा से जाग जाती। बच्ची भारत की न्याय-व्यवस्था की आंख में आंख डालकर पूछती कि ऐसी घटिया मौत भले ही खुदा ने मेरे लिए रची थी, पर क्या यह भारत की कानून-व्यवस्था की हार नहीं है कि मेरे हत्यारे का सुराग अभी तक किसी के पास नहीं! क्यों जम्मू-कश्मीर राज्य के आला दिमाग अफसर आरोपियों का सुराग लगाने नाकाम रहे ? क्यों क्राइम ब्रांच के आला अधिकारी उसके कातिल का चेहरा बेनकाब न कर सकी? इसके साथ ही बच्ची जांच करने वाले अधिकारियों से पूछती की आखिर करीब 2 महीनें गुजर जाने के बाद भी किसी आरोपी की पहचान नहीं कर पाए हो तो क्यों ना अपनी योग्यता की पोल खोल देते हो? हीरानगर की कूटा पंचायत के रसाना गांव की आठ वर्षीय बच्ची की हत्या संसार के सबसे बडे़ लोकतंत्र को अराजक और अनैतिक भीड़तंत्र भी साबित करती है।  

18 जनवरी को मिला शव, पर अभी नहीं मिला आरोपी

आप सब जानते हैं कि हमारे सामने 10 जनवरी 2018 को जम्मू संभाग के कठुआ जिला के रसाना गांव की की बच्ची जो मवेशियों को चराने गई थी, वह संदिग्ध परिस्थितियों में लापता हो जाती है। आठवें दिन यानी 18 जनवरी को पास के जंगल में उसका शव बरामद होता है। प्रारम्भिक जांच में बच्ची के साथ दुष्कर्म होने की बात सामने आती है। उसका अपहरण किसने किया, किसने दुष्कर्म किया, उसे किसने मारा अभी तफ्तीश जारी है। कुछ दिनों बाद पुलिस ने शक के आधार पर एक नाबालिग को को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन लोगों ने आरोप लगाया कि जिस नाबालिग को गिरफ्तार किया है, उसका इस घटना में कोई हाथ नहीं है। लोगों ने प्रदर्शन शुरू कर दिया कि इस मामले की जांच की जाए। पहले स्थानीय स्तर पर पुलिस जांच करती है। उसके बाद एसआइटी (विशेष जांच टीम) का गठन किया जाता। और बाद में मामले को क्राइम ब्रांच को सौंपा जाता है, लेकिन करीब एक माह की जांच के बाद भी क्राइम ब्रांच के हाथ खाली हैं। क्राइम ब्रांच के अधिकारी बीच-बीच में रसाना गांव में जाकर वहां के युवाओं को हिरासत में लेती है। पूछताछ करती है, लेकिन फिर भी कोई सुराग हत्यारे का नहीं मिलता है। बार-बार जांच अधिकारियों के गांव में जाकर युवाओं को हिरासत में लेने के कारण और मामले का कोई सुराग नहीं मिलने पर लोगों में गुस्सा भड़क गया है। लड़की समुदाय विशेष से संबंध रखती थी, जिन लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है, हिन्दू धर्म से संबंधित हैं। 

आखिर क्यों नहीं हो रही सीबीआई जांच

लोग अब आरोप लगा रहे हैं कि क्राइम ब्रांच की जांच टीम में शामिल अधिकारी भी समुदाय विशेष से संबंध रखते हैं, जो मुख्यमंत्री के इशारे पर हिन्दुओं को निशाना बना रहे हैं, और हिन्दुओं के बच्चों को ही गिरफ्तार कर रहे हैं। ऐसे में हिन्दू समुदाय के लोगों ने हिन्दू एकता मंच बनाया और मामले को सीबीआइ के सौंपने की मांग रखी, लेकिन राज्य सरकार इस पर कोई विचार नहीं कर रही है। रसाना गांव के लोग एक बार तो गांव से पूरी तरह से पलायन भी कर चुके हैं। पलायन के दूसरे दिन राज्य सरकार के मंत्री गांव के लोगों के साथ मिलते हैं। वह लोगों को आश्वासन देते हैं कि मामले की सीबीआइ जांच करवाने के लिए मुख्यमंत्री से बात की जाएगी, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हो सका है। लोगों में मामले को लेकर लगातार गुस्सा बढ़ रहा है। लोगों की मांग पर सरकार को भी कदम उठाने की जहमत उठानी चाहिए कि मामले को सीबीआइ को सौंप दे, क्योंकि करीब दो माह में स्थानीय जांच एजेंसियां अभी तक मामले की तह तक नहीं पहुंच पाई है। सीबीआइ भी सरकार की ही एजेंसी है, जिसको भी लोगों के लिए ही बनाया गया है। ऐसे में सरकार को उससे मदद लेने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए।

मुर्दों की आत्माएं बोला नहीं करती

अब तक हुई जांच पर सवाल उठता है कि कहीं कुछ ऐसा है, जो दबा है या दबा दिया गया है अथवा दबाया जा रहा है। क्या कोई षड्यंत्र रचा गया ? या, पुलिस और क्राइम ब्रांच जांच करने में अक्षम हैं? या, कहीं और चूक हो रही है जो अभी तक मामले की जांच ही पूरी नहीं हो पाई है? यह सवाल फिर से फन फैलाकर समूची व्यवस्था पर फुफकार रहा है कि आखिर बच्ची का कातिल कौन? अब इस किंवदंती बनते हुए रहस्य पर से अगर कोई परदा उठा सकता है, तो वे खुद बच्ची है । मगर करें क्या, मुर्दों की आत्माएं बोला नहीं करती। 
इस मामले में जो कुछ भी रहा है वह किसी भी रूप में सही नहीं ठहराया जा सकता है। इस मामले का राजनीतिकरण और सांप्रदायीकरण किया जा रहा है। किसी भी हत्या अथवा कुकृत्य के मामले में न तो राजनीति होनी चाहिए और न ही ऐसे मामलों को धर्म और समुदाय के आधार देखना चाहिए। ऐसी घटनाएं किसी धर्म अथवा जाति को नहीं बल्कि पूरे समाज को कलंकित करती हैं। ऐसे घटनाओं को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।

पूर्वोत्तर में भगवा से पहली चुनावी लड़ाई में ही चित हो गया वामपंथ

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों के शनिवार को नतीजे घोषित हुए। त्रिपुरा ने सबको चौंकाते हुए अपनी बागडोर भाजपा के हाथ में सौंप दी है। राज्य के लोगों का मानना है कि उन्हें 25 वर्षों के बाद आजादी मिली है। लोगों ने कई उम्मीदों के साथ भाजपा के हाथों राज्य की कमान सौंपी है, लेकिन आगे देखने वाली बात यह होगी कि भाजपा लोगों की उम्मीदों पर कितना खरा उतरती है।

भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा के लगातार दौड़ रहे विजयरथ को रोक पाना फिलहाल किसी के लिए संभव नहीं दिख रहा है। भाजपा पंजाब को छोड़कर कहीं भी एक साल में हुए विधानसभा चुनावों में हार नहीं सकी है। हां कई सीटों पर हुए उपचुनाव इसके अपवाद हो सकते हैं, लेकिन जिस तरह से भाजपा आगे बढ़ रही है, उसका मुकाबला करने के लिए लगभग देश भर के तमाम गैर-भाजपा दलों को एकजुट होना पड़ेगा।
वामदल के गढ़ त्रिपुरा की फतह और क्षेत्रीय दलों की सनक पर चलने वाले नागालैंड में मजबूत भाजपा के साथ राजग सरकार गठन के संकेत ने यह सिद्ध कर दिया है कि भाजपा की विचारधारा के प्रभाव से कांग्रेस ही नहीं वाम भी नहीं बच सकता है। त्रिपुरा में पहली सीधी लड़ाई में ही वाम चित हो गया है। वहीं मेघालय में त्रिशंकु विधानसभा ने फिर से कांग्रेस को यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि वह जनता की अपेक्षाओं को समझने में नाकाम है। 60 विधानसभा सीटों वाले त्रिपुरा में भाजपा को तीन चौथाई सीटें मिली। नागालैंड में यूं तो पहले भी राजग की सरकार थी, लेकिन इस बार भाजपा ने वहां अपनी व्यक्तिगत स्थिति मजबूत कर ली। 10 साल से मेघालय में काबिज कांग्रेस अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। इस लिहाज से पूर्वोत्तर के 7 राज्यों में से अब 5 में भाजपा या राजग की सरकार होगी। अगर राष्ट्रीय स्तर की बात की जाए तो 22 राज्यों के साथ भाजपा का राजग शासन के अंदर देश की लगभग 68 फीसदी आबादी होगी।

नतीजे तीन छोटे राज्यों के आए हैं लेकिन उसके राजनीतिक अर्थ बहुत बड़े हैं। पहले जम्मू-कश्मीर, फिर असम और अब त्रिपुरा। भाजपा धीरे-धीरे न सिर्फ भौगोलिक सीमाओं पर जीत हासिल कर रही है बल्कि वैचारिक स्तर पर भी कांग्रेस के बाद वाम को हराने का साफ अर्थ है कि क्षेत्रीयता पर राष्ट्रीयता हावी होने लगी है। त्रिपुरा की बड़ी आबादी बंगाली है और इससे इनकार करना मुश्किल होगा कि इसका सीधा असर पश्चिम बंगाल में भी दिख सकता है। ध्यान रहे कि त्रिपुरा में पहली पकड़ तब बनी थी जब त्रिपुरा विधानसभा में तृणमूल कांग्रेस के सात विधायक टूटकर भाजपा के पाले में आ गए थे। वाम को पस्त करने के साथ ही भाजपा के लिए केरल की लड़ाई भी मनोवैज्ञानिक रूप से थोड़ी आसान होगी। पश्चिम बंगाल और केरल के चुनाव 2021 में होने हैं। कर्नाटक का चुनाव डेढ़ महीने बाद है जहां भाजपा और कांग्रेस की सीधी लड़ाई है। उसके बाद अधिकतर राज्यों में भाजपा को क्षेत्रीय दलों से लड़ना है और ऐसे में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के नतीजे ने भाजपा के रणनीतिकारों को बल दिया है। नागालैंड रणनीतिक रूप से अहम है।
गौरतलब है कि नागा पीस वार्ता को जमीन पर उतारने के लिहाज से यह जरूरी माना जा रहा था कि वहां राष्ट्रीय सोच की पार्टी सत्ता में मजबूत होकर आए और वहां अब भाजपा ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली है।

इश्क का तमाशा



बड़े दिन बीते हैं आपका नूरानी चेहरा देखे।
आते क्यों नहीं, हर बार क्यों भूल जाते हैं।।
आओ आज फिर इश्क का तमाशा बनाते हैं।
ढेरों कसमें खाते हैं व हंस के भूल जाते हैं।।
प्यार में लड़ाई झगड़े तो जायज हैं सनम।
खुद की कही यह बातें क्यों भूल जाते हैं।।
सदाबहार रखिए प्यार की मौसमी बरसात।
ऐसे न बनो, ज्यों रुत बदलते फूल जाते हैं।।

आओ अब थूक दो सिर का सारा ये गुस्सा।
कुछ तुम भूलो और कुछ हम भूल जाते हैं।।
उठाओ कसम न रूठेंगे कभी एक दूसरे से।
प्यार निभाने के लिए ऐसा उसूल बनाते हैं।।

महक जाएं हमारे बगल की यह फिजाएं।
चमन-ए-इश्क कोई ऐसा फूल खिलाते हैं।।
अब आगोश में लो हमजोली को रविन्द्र।
सारे जामाने की एक होकर भूल जाते हैं।।

बैंकों की गलती और घोटाले की मार, जनता को उठाना पड़ रहा नुकसान

देश में पिछले कुछ दिनों से पीएनबी घोटाला और रोटोमैक घोटाला सुर्खियों में है। इन घोटालों से देश के बैंकों को करोड़ों का चूना तो लगा ही है, देश के आम लोगों को भी इससे नुकसान हुआ है। पिछले कुछ समय में देश में हुए बैंक घोटाले और सरकार के घाटे की वजह से हर देशवासियों की जेब से करीब 8 हजार रुपए निकल रहे हैं।


देश के हालात चौंकाने वाले

भारत का हाल अगर सुनेंगे तो ये काफी चौंकाने वाले हैं. देश में इस साल सरकार का वित्तीय घाटा करीब 6 लाख करोड़ रुपए का है. अगर आसान भाषा में समझे तो 130 करोड़ की आबादी के हिसाब से हर देशवासी पर 4615 रुपए का कर्ज चढ़ गया है। रही सही कसर बैंक घोटालों और एनपीए ने पूरी कर दी है। बैंकों को खोखला होने से बचाने में सरकारी का पैसा जा रहा है, जाहिर है रकम भले सरकारी है पर जिस जेब से जा रही है वो तो हमारी है।

एनपीए और घोटालों में बड़ी रकम खर्च

भारत में सरकारी खजाने पर इतना बोझ है कि बोनस की बात तो छोड़ दीजिए। इस साल के बजट के मुताबिक वित्तीय घाटे के अलावा बैंकों के एनपीए और घोटालों में बड़ी रकम खर्च हो रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सितंबर 2017 तक सरकारी बैंकों का खराब लोन 7 लाख 34 हजार करोड़ रुपए था और ये लगातार बढ़ता ही जा रहा है। 130 करोड़ भारतीयों में इसे बांटे तो हर किसी के हिस्से में 5600 रुपया आएगा।

अब तो यह दहशत मंजूर नहीं है, कार्रवाई करो पाक इतना भी दूर नहीं है

भारत विरोध ने पाकिस्तान को उन्माद से ग्रस्त कर दिया है और उन्माद से भरे किसी भी देश से सभ्य राष्ट्र की तरह से व्यवहार की अपेक्षा करना एक तरह से समय को जाया करना ही है। यह पागलपन के अलावा और कुछ नहीं कि पाकिस्तान ने 2016 में 228 बार संघर्ष विराम का उल्लंघन किया तो 2017 में 860 बार। इस साल वह बीते चंद दिनों में ही 240 बार संघर्ष विराम का उल्लंघन कर चुका है। साफ है कि उसके होश ठिकाने पर नहीं। पाकिस्तान के होश ठिकाने लगाने के लिए भारत को सख्त कदम उठाने की अावश्यकता है।

भारतीय सीमा के अंदर जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के गाइडेड मिसाइल के हमले में एक सैन्य अधिकारी और तीन भारतीय सेना के जवानों की शहादत देश के लिए एक बड़ा आघात है। पाकिस्तान के इस हमले को न तो नजरअंदाज किया जा सकता है और न ही पूर्व के हमलों को और न ही भारतीय जवानों की शहादत को किसी भी कीमत पर भुलाया जा सकता है। पाकिस्तान की गुस्ताखी और पागलपन की गवाही देने वाली पूर्व की घटनाओं की तरह इस घटना ने फिर वही सवाल खड़ा कर दिया है जम्मू-कश्मीर में तैनात सुरक्षाबलों के जवानों की शहादत का सिलसिला कब तक जारी रहेगा और कब तक भारतीय जवान शहीद होते रहेंगे।


यह ठीक है कि सरकार से लेकर सेना तक ने भी यह साफ कर दिया है कि पाकिस्तान को भारतीय जवानों के शहादत की कीमत चुकानी ही पड़ेगी। सरकार और सेना की इस प्रतिक्रिया से पूरी तरह आशवस्त हो सकते है कि भारतीय सेना अपने साथियों की शहादत का पाकिस्तान से हर हाल में बदला लेगी, लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे पाकिस्तान की ओर से संघर्ष विराम के उल्लंघन और आतंकियों की घुसपैठ करवाने का सिलसिला भी थमेगा? इस सवाल का सही जवाब तब मिलेगा जब कुछ ऐसा किया जाएगा जिससे पाकिस्तान अपनी गुस्ताखी भरी और पागलपन वाली हरकतों के लिए अच्छी खासी कीमत चुकाएगा। यह भी सही है कि पाकिस्तानी सेना जब भी संघर्ष विराम का उल्लंघन करती है तो उसे भारतीय सेना द्वारा मुंहतोड़ जवाब दिया जाता है, लेकिन यह कहना कठिन है कि भारतीय सेना की आक्रामकता से पाकिस्तान की सेहत पर कोई खास असर पड़ता है, वह तो भारतीय सेना की कड़ी कार्रवाई के बाद फिर से अपनी उसी हरकत पर आ जाता है। सबको पता है कि पाकिस्तान भारतीय सेना की कार्रवाई से होने वाली क्षति को दबाने-छिपाने में माहिर है। वह भारतीय कार्रवाई से होने वाली क्षति की खबरों को कभी सार्वजनिक नहीं करता है, जबकि भारत पाक की गोलाबारी के कारण एक आम नागरिक से लेकर सेना को भी किसी तरह के होने वाले नुकसान से पूरे भारत को अवगत करवाता है। पाकिस्तान द्वारा उसको भारतीय सेना की कार्रवाई में हुए नुकसान को छुपाने से इन्कार करने का सबूत यह है कि गत वर्ष भारतीय सेना द्वारा सीमा पार की गई सर्जिकल स्ट्राइक को भी पूरी तरह से नाकार दिया था। और कहा था कि भारतीय सेना ने उस पर कोई सर्जिकल स्ट्राइक की ही नहीं थी।


नि:संदेह सर्जिकल स्ट्राइक के माध्यम से भारतीय सेना पाकिस्तान और विश्व को यह संदेश देने में सक्षम हुई थी, लेकिन पाकिस्तान से लगती नियंत्रण रेखा और सीमा रेखा के हालात यही बताते हैं कि पाकिस्तान ने जरूरी सबक नहीं सीखा। संघर्ष विराम के उल्लंघन के साथ ही सीमा पार से घात लगाकर किए जाने वाले हमलों की संख्या जिस तरह बढ़ रही है, उन हालातों में सीमा के हालातों को सामान्य नहीं कहा जा सकता है। सीमा पर पाक की गोलाबारी के साथ कश्मीर को लेकर पाकिस्तान का उन्माद बढ़ता जा रहा है। पाकिस्तान कश्मीर की स्थिति को खराब करने के वहां अलगाववादियों का समर्थन कर रहा है। सीमा पर जहां सैनिकों पर गोलाबारी की जा रही है तो कश्मीर में भी सेना के जवानों और कैंपों पर पत्थरबाजी करवाई जा रही है। दोनों ओर से भारतीय सेना के साहस को डिगाने की कोशिश पाकिस्तान द्वारा की जा रही है। अब स्थिति यह है कि भारत को पाक पर नए सिरे से कठोर प्रहार करके उसे सख्त सबक सिखाना चाहिए, ताकि भविष्य में पाक इस तरह की नापाक हरकतें करने से पहले हजार बार सोचे की इसका अंजाम क्या होगा। भारत को बार-बार अपनी शांति बहाली के प्रयासों से पीछे हटकर इन नापाक हरकतों का सैन्य कार्रवाई के माध्यम से कठोर जबाव देना चाहिए।


पिछले तीन सालों जिस तरह से पाकिस्तान कार्रवाई कर रहा है, उसे तो यही कहा जा सकता है कि जिस तरह से अमेरिका द्वारा उत्तर कोरिया को परमाणु परीक्षण करने पर चेताया जा रहा, लेकिन वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है, ठीक यहीं स्थिति भारत की चेतावनियों के पाकिस्तान अपनाए हुए है। पाकिस्तान को बार-बार चेताना या फिर उसके राजनयिकों को तलब कर उनके समक्ष विरोध जताना व्यर्थ की कवायद है। भारत विरोध ने पाकिस्तान को उन्माद से ग्रस्त कर दिया है और उन्माद से भरे किसी भी देश से सभ्य राष्ट्र की तरह से व्यवहार की अपेक्षा करना एक तरह से समय को जाया करना ही है। यह पागलपन के अलावा और कुछ नहीं कि पाकिस्तान ने 2016 में 228 बार संघर्ष विराम का उल्लंघन किया तो 2017 में 860 बार। इस साल वह बीते चंद दिनों में ही 240 बार संघर्ष विराम का उल्लंघन कर चुका है। साफ है कि उसके होश ठिकाने पर नहीं। पाकिस्तान के होश ठिकाने लगाने के लिए भारत को सख्त कदम उठाने की अावश्यकता है।

इंसानियत मर गई 'हैवानियत' हुई जिंदा

कल मैं विभिन्न न्यूज पोर्टल पर एक समाचार पढ़ कर थोड़ा ठहर और सिहर-सा गया। अधिकतर पोर्टलों में यही समाचार प्रमुखता के साथ प्रसारित हो रहा था कि सोलन में एक नवजात बच्चे का शव मिला है। शव मिला क्या, उसको तो कुत्ते नोच रहे थे। बार-बार इंसानियत की दुहाई देने वाले भारतीय समाज में यह कैसी प्रथा आ गई है। यहां के लोग कैसे हो गए हैं। लोग बच्चों की चाहत में मंदिरों-मस्जिदों में जिन्दगी गुजार देते हैं। कई मन्नतें करते हैं। कई कई दिनों तक भूखे रहते हैं कि उनको बच्चा हो जाए, लेकिन यह घटना समाज को शर्मसार करने वाली है। इस तरह से नवजात बच्चे को कुत्तों द्वारा नोचा जाना समाज को नीच बताने वाली और इंसानियत के लिए खतरनाक घटना है। जिन्दगी ने और दिखावे की चाहत ने लोगों को क्या बना दिया है। उसकी सोच कैसी हो गई है। इंसान ही इंसानियत का दुश्मन बन बैठा है, उसको भगवान का भी डर नहीं रहा है। आपनी भौतिकतावादी और संकीर्ण मानसिकता के कारण इतना गिर गया है कि उसे सही और गलत में कोई फर्क नजर नहीं अाने लगा है। उसे क्या करना है क्या नहीं इसका भी कोई ख्याल नहीं रहा है। सिर्फ भुगतभोगी बनना आता है, बाकि समाज के लिए उसकी क्या जिम्मेदारियां हैं उसका उसे कोई ज्ञान ही नहीं है।
नवजात बच्चे का कुत्तों द्वारा नोचे जाने की घटना से भगवान भी शर्मिंदा होगा कि जिस धरती को इंसान देवभूमि मानता है आज वह भूमि किसी सुरभूमि से कम नहीं है। जिन लोगों को दुनिया में इंसानियत का पाठ पढ़ाने के लिए जमीं पर भेजा था आज वही हैवानियत का पाठ पढ़ाने पर तुले हुए हैं। उनको तो इंसानियत से कोई वास्ता ही नहीं है। एेसा नहीं है कि हिमाचल में इस तरह के नवजात बच्चे मिलने की पहली घटना है, इससे पहले भी हिमाचल के विभिन्न जिलों से इस तरह के समाचार आते रहे हैं, जिन्होंने पूरी देवभूमि को ही दागदार बना दिया है। हिमाचल की छवि पर यह एेसे धब्बे हैं, जिनको धो पाना शायद मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। क्योंकि यह घटनाएं एेसी हैं.  जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वह भी एेसी भूमि पर जहां के लोगों को सबसे अधिक धार्मिक विचार और परिवेश वाला माना जाता हो।

हाल ही की कुछ घटनाएं
सोलन में नवजात बच्चे के मिलने की घटना से पांच दिन पूर्व ही पर्यटन नगरी धर्मशाला में 28 जनवरी को सदर पुलिस थाना के अंतर्गत सिद्धपुर में शनिवार को मनूणी खड्ड के पास नवजात शिशु का शव मिला था। इससे पूर्व सोलन के नालागढ़ क्षेत्र की ग्राम पंचायत कालूझिंडा के तहत कलरांवाली में खेतों में 17 अक्तूबर 2017 को एक नवजात शिशु का शव मिला। उसको भी  आवारा कुत्तों ने जगह-जगह से नोच डाला है। जहां नवजात शिशु का यह शव मिला था उसके साथ ही हिमाचल का अटल शिक्षा कुंज कालूझिंडा है।

जारी.............. 





चम्बा राजनीतिक उपेक्षाओं का शिकार, कैसे पाएगा अपने पिछड़ेपन से पार

आजादी से पहले जिस क्षेत्र में कोलकाता के बाद सबसे पहले बिजली आई, जहां पूरे एशिया का एकमात्र कुष्ठरोग का अस्पताल था। जहां के चर्चे देश के साथ विदेशों में होते थे, आज वह क्षेत्र हिमाचल ही नहीं पूरे देश के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में शामिल हो गया है। जिस क्षेत्र के आज भी विदेशों में ड़के बजते हैं वह चम्बा जिला हिमाचल नहीं बल्कि देश के 707 सबसे पिछड़े जिलों में शामिल है। इसका साफ सा कारण तो यही दिखता है कि चम्बा हमेशा राजनीतिक उपेक्षाओं का शिकार हुआ है और हो रहा है। तो कैसे यह जिला अपने पिछड़ेपन से पार पाएगा। जिस वक्त हिमाचल का गठन किया गया था, उस समय हिमाचल प्रदेश में चार जिला महासू, सिरमौर, चंबा, मंडी शामिल किए गए थे। उस दौरान अन्य जिलों की तुलना में चम्बा सबसे आगे था और आज सबसे पीछे। जिसे जिले काे समय के साथ आगे बढ़ना चाहिए था वो पिछड़ता गया। आज हालात यह हैं कि चम्बा आज हर क्षेत्र में प्रदेश के अन्य जिलों की तुलना में सबसे पीछे है। आजादी के सात दशक बीतने के बाद आज जिला चम्बा को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए देश के नीति आयोग को पिछड़े जिलों की सूची में शामिल करना पड़ा। यानी विकास में को चम्बा प्रदेश के अन्य 11 जिलों के बराबर लाने के लिए आगे आना पड़ा। 

आजादी के पूर्व चम्बा के रियासती काल पर नजर दौड़ाई जाए तो पूरे देश में कोलकाता के बाद बिजली की सुविधा सिर्फ चम्बा में ही उपलब्ध थी। चिकित्सा के मामले में तो चंबा रियासत को न सिर्फ पूरे देश में बल्कि एशिया में कुष्ठ रोग चिकित्सा सुविधा के क्षेत्र में पहला स्थान प्राप्त था। एशिया का पहला कुष्ठ रोग चिकित्सालय जिला चंबा में ही था। पुलों का निर्माण इंगलैंड की तकनीक के आधार पर किया गया। जिसका बाजूद आज भी रावी नदी पर बने शीतला पुल/विक्टोरिया पुल के नीचे आज भी अवशेष देखे जा सकते हैं। ऐतिहासिक वस्तुओं को संजोकर भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखने के लिए भूरी सिंह संग्रहालय का निर्माण भी तब हुआ था जब देश में चंद ही संग्रहालय मौजूद थे। नगर में सड़कों की व्यवस्था बेहतर थी तो साथ ही विकास भी योजनाबृद्ध ढंग से हुआ। 1947 में देश के आजाद होने के बाद जहां हर तरफ विकास की गंगा बहने लगी तो जिला चंबा में यह स्थिति उल्ट हो गई। धीरे-धीरे यह जिला विकास में इस कदर विकास में पिछड़ा कि आजादी के सात दशक बाद केंद्र सरकार को यह जिला पिछड़ा घोषित करना पड़ा, पर चिंता का विषय है कि जहां जिले को विकास की नई इबारत लिखनी चाहिए थी, वहां जिला सबसे पिछड़ गया।



केंद्र सरकार के नीति आयोग द्वारा चम्बा को पिछड़ा जिला घोषित किए जाने के बाद सत्ताधारी पार्टी के लोग जश्न मना रहे हैं। एक दूसरे को बधाईयां दे रहे हैं। बधाईयां ऐसे दे रहे हैं जैसे जिले ने राष्ट्रीय स्तर पर कोई ख्याति प्राप्त कर ली हो। मूर्खो यह बधाईयां देने का नहीं बल्कि चिंतन करने का विषय है। आपका जिला जिसमें पूरे भारत में कोलकाता को छोड़कर कहीं बिजली नहीं थी तो यह घरों में बिजली जलाता था। आजादी के बाद यहां अन्य सुविधाएं देने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए जो नहीं हुए सभी को इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। लेकिन आपकी सोच कैसी है। आप तो पिछड़ेपन पर भी बधाईयां दे रहे हैं। आपकी किसी भी व्यक्ति, राजनीतिक पार्टी और एक-दूसरे की खिलाफत करने के बजाय इस पिछड़ेपन के मिले तमगे को लौटाना है। आपकी यह बधाईयां देने वाली यह हरकत किसी मूर्खता से कम नहीं है। अपने अतीत में झांको कहां से कहां आ गए हो  ?

हैप्पी बर्थडे जयराम ! जानें कैसे रहा जयराम के जीवन का सफर

हिमाचल के मंडी जिले के सिराज विधानसभा क्षेत्र को प्रकृति ने सुंदरता का अपार भंडार बख्शा है। इसी विधानसभा क्षेत्र की ग्राम पंचायत मुराहग में तांदी गांव है जहां हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का घर है। 6 जनवरी 1965 को जेठू राम और ब्रिकमो देवी के घर जन्मे जयराम ठाकुर का बचपन गरीबी में कटा। परिवार में 3 भाई और 2 बहनें थीं। पिता खेतीबाड़ी और मिस्त्री का काम करके अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। जयराम ठाकुर तीन भाईयों में सबसे छोटे हैं इसलिए उनकी पढ़ाई-लिखाई में परिवार वालों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। जयराम ठाकुर ने कुराणी स्कूल से प्राइमरी करने के बाद बगस्याड़ स्कूल से उच्च शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद वह मंडी आए और यहां से बीए करने के बाद पंजाब यूनिवर्सिटी से एमए की पढ़ाई पूरी की।

परिवार ने खेतीबाड़ी संभालने की सलाह दी
जयराम ठाकुर को पढ़ा चुके अध्यापक लालू राम बताते हैं कि जयराम ठाकुर बचपन से ही पढ़ाई में काफी तेज थे। अध्यापक भी यही सोचते थे कि जयराम ठाकुर किसी अच्छी पोस्ट पर जरूर जाएंगे। लेकिन अध्यापकों को यह मालूम नहीं था कि उनका स्टूडेंट प्रदेश की राजनीति का इतना चमकता सितारा बन जाएगा कि पूरे हिमाचल का नेतृत्व करेगा। जब जयराम ठाकुर वल्लभ कालेज मंडी से बीए की पढ़ाई कर रहे थे तो उन्होंने एबीवीपी के माध्यम से छात्र राजनीति में प्रवेश किया। यहीं से जयराम ठाकुर के राजनीतिक जीवन की शुरूआत हुई। जयराम ठाकुर ने इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। एबीवीपी के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ भी जुड़े और कार्य करते रहे।

घर परिवार से दूर जम्मू-कश्मीर जाकर एबीवीपी का प्रचार किया और 1992 को वापस घर लौटे। घर लौटने के बाद वर्ष 1993 में जय राम ठाकुर को भाजपा ने सिराज विधानसभा क्षेत्र से टिकट देकर चुनावी मैदान में उतार दिया। जब घरवालों को इस बात का पता चला तो उन्होंने इसका विरोध किया। उनके बड़े भाई बीरी सिंह बताते हैं कि परिवार के सदस्यों ने जयराम ठाकुर को राजनीति में न जाकर खेतीबाड़ी संभालने की सलाह दी थी। क्योंकि चुनाव लड़ने के लिए परिवार की आर्थिक स्थिति इजाजत नहीं दे रही थी।


विधानसभा चुनावों में हार का मुंह नहीं देखा
जयराम ठाकुर ने अपने दम पर राजनीति में डटे रहने का निर्णय लिया और विधानसभा का चुनाव लड़ा। उस वक्त जय रामठाकुर मात्र 26 वर्ष के थे। यह चुनाव जय राम ठाकुर हार गए। वर्ष 1998 में भाजपा ने फिर से उनको चुनावी रण में उतारा और उन्होंने जीत हासिल की और उसके बाद कभी विधानसभा चुनावों में हार का मुहं नहीं देखा। जयराम ठाकुर विधायक बनने के बाद भी अपनी सादगी से दूर नहीं हुए। उन्होंने विधायकी मिलने के बाद भी अपना वो पुश्तैनी कमरा नहीं छोड़ा जहां जीवन के कठिन दिन बीताए थे। जयराम ठाकुर अपने पुश्तैनी घर में ही रहे। हालांकि अब उन्होंने एक आलीशान घर बना लिया है और वह परिवार सहित वहां पर रहने भी लगे हैं लेकिन शादी के बाद भी जयराम ठाकुर ने अपने नए जीवन की शुरूआत पुश्तैनी घर से ही की। वर्ष 1995 में उन्होंने जयपुर की डा. साधना सिंह के साथ शादी की। जयराम ठाकुर की दो बेटियां हैं। आज अपने बेटे को इस मुकाम पर देखकर माता का दिल फुले नहीं समाता। जय राम ठाकुर के पिता जेठू राम का गत वर्ष देहांत हो गया है। जयराम ठाकुर की माता ब्रिकमू देवी ने बताया कि उन्होंने विपरित परिस्थितियों में अपने बच्चों की परवरिश की है।


पहले भी रहे हैं महत्वपूर्ण पदों पर
जय राम ठाकुर एक बार सिराज मंडल भाजपा के अध्यक्ष, एक बार प्रदेशाध्यक्ष, राज्य खाद्य आपूति बोर्ड के उपाध्यक्ष और कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं। जब जयराम ठाकुर भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष थे तो भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई थी। उन्होंने उस दौरान सभी नेताओं पर अपनी जबरदस्त पकड़ बनाकर रखी थी और पार्टी को एकजुट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
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